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जब मुझे सत्य का ज्ञान हुआ


कई  साल पहले दैनिक जागरण में श्री बलराज मधोक का लेख 'दंगे क्यूँ होते हैं?' पढ़ा. इस लेख में हिन्दू-मुस्लिम दंगा होने का कारण कुरआन मजीद में काफिरों से लड़ने के लिए अल्लाह के फरमान बताये गए थे. लेख में कुरआन मजीद की वे आयतें भी दी गई थीं.

इसके बाद दिल्ली से प्रकाशित एक पम्फलेट 'कुरआन की चौबीस आयतें, जो अन्य धर्मावलम्बियों को झगडा करने का आदेश देती हैं.' किसी व्यक्ति ने मुझे दिया. इसे पढने के बाद मेरे मनन में जिज्ञासा हुई की मई कुरआन पढू. इस्लामी पुस्तकों के दूकान में कुरआन का हिंदी अनुवाद मुझे मिला. कुआं मजीद के इस हिंदी अनुवाद में वे सभी आयतें मिलीं जो, पम्फलेट में लिखीं थीं. इससे मेरे मन  में यह गलत धारणा बनी की इतिहास में हिन्दू राजाओ व मुस्लिम बादशाहों के बीच जुंग में हुई मार-काट तथा आज के दंगों और आतंकवाद का कारण इस्लाम है. दिमाग भ्रमित हो चुका था. इस भ्रमित दिमाग से हर आतंकवादी घटना मुझे इस्लाम से जुडती दिखाई देने लगी.

इस्लाम, इतिहास और आज की घटनाओं को जोड़ते हुए मैंने एक पुस्तक लिख डाली 'इस्लामिक आतंकवाद का इतिहास' जिसका अंग्रेजी अनुवाद 'The History Of Islamic Terrorism' के नाम से सुदर्शन प्रकाशन, सीता कुञ्ज, लिबर्टी गार्डेन, रोड नंबर ३, मलाड (पश्चिम) मुंबई ४०००६४ से प्रकाशित हुआ.

मैंने हाल में इस्लाम धर्म के विद्वानों (उलमा) के बयानों को पढ़ा की इस्लाम का आतंकवाद से कोई सम्बन्ध नहीं है. इस्लाम प्रेम सद्भावना व भाईचारे का धर्म है. किसी बेगुनाह को मारना इस्लाम के विरुद्ध है. आतंकवाद के खिलाफ फतवा भी ज़ारी हुआ.

इसके बाद मैंने कुरआन मजीद में जिहाद के लिए आई आयातों के बारे में भी जान्ने के लिए मुस्लिम विद्वानों से संपर्क किया, जिन्होंने मुझे बताया की कुरआन मजीद की आयतें भिन्न-भिन्न तत्कालीन परिस्थितियों में उतरी. इसलिए कुरआन मजीद का केवल अनुवाद ही न देख कर यह भी जानना ज़रूरी है की कौनसी आयत किस परिस्थिति में उतरी तभी उसको सही मतलब और मकसद पता चल पायेगा.

साथ ही धायं देने योग्य है की कुरआन इस्लाम के पैगम्बर मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलेही व सल्लम) की जीवनी से परिचित होना भी ज़रूरी है.

विद्वानों ने मुझसे कहा- "आपने कुरआन मजीद की जिन आयातों का अनुवाद अपनी किताब में हिंदी में किया है, वे आयतें अत्याचारी क़ाफ़िर मुशरिक लोगों के लिए उतारी गई है जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से लड़ाई करते और मुल्क में फसाद करने के लिए दौड़े फिरते हैं. सत्य धर्म की राह में रोड़ा डालने वाले ऐसे लोगों के विरुद्ध ही कुरआन में जिहाद का फरमान है."

उन्होंने मुझे कहा की इस्लाम की सही जानकारी न होने के कारण लोग कुरआन मजीद की पवित्र आयातों का मतलब नहीं समझ पाते . आदि आपने पूरी कुरआन मजीद के साथ हज़रात मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलेही व सल्लम) की जीवनी पढ़ी होती, तो आप भ्रमित न होते.

मुस्लिम विद्वानों के सुझाव के अनुसार मैंने सबसे पहले पैगम्बर हजरत मुहम्मद की जीवनी पढ़ी. जीवनी पढने के बाद इसी नज़रिए से जब मन की अशुद्धता के साथ कुरआन मजीद शुरू से अंत तक पढ़ी, तो मुझे कुरआन मजीद की आयातों का सही मतलब समझ आने लगा.

सत्य सामने आने के बाद मुझे अपनी भूल का एह्साह हुआ की अनजाने में भ्रमित था और इसी कारण ही मैंने अपनी उक्त किताब 'इस्लामिक आतंकवाद का इतिहास' में आतंकवाद को इस्लाम से जोड़ा है जिसका मुझे हार्दिक खेद है.

मै अल्लाह से, पैगम्बर मोहम्मद (सल्ल०) से और सभी मुस्लिम भाइयों से सार्वजनिक रूप से माफ़ी मांगता हूँ तथा अगानता में लिखे व बोले शब्दों को वापस लेता हूँ. सभी जनता से मेरी अपील है की 'इस्लामिक आतंकवाद का इतिहास' पुस्तक में मैंने जो कुछ लिखा है उससे शून्य समझे.


स्वामी लक्ष्मीशंकराचार्य
ए-१६०१, आवास विकास कालोनी,
हंस्पुरम, नौबस्ता कानपुर- २०८०२१
e-mail: laxmishankaracharya@yahoo.com

About The Author (जीवन परिचय)


श्री स्वामी लक्ष्मीशंकर का जन्म सन १९५३ में एक ब्रह्मिन परिवार में हुआ. आपके पिटा स्व० सीतापरम त्रिपाठी व माता श्रीमती कौशल्या देवी पेशे से अध्यापक थे. आपकी शिक्षा-दीक्षा कानपूर और अल्लाहाबाद में हुई. शिक्षा प्राप्त करने के बाद ठेकेदारी के पेशो से जुड़ गए. लेकिन कुछ समय बाद ही बोतिकता को त्याद कर अध्यात्मा की ओर मुड़ गए.

इस बीच इस्लाम के बारे में किये जा रहे दुष्प्रचार से प्रभावित होकर आपने एक पुस्तक 'इस्लामिक आतंकवाद का इतिहास' लिखी जिसका अंग्रेजी अनुवाद 'The History Of Islamic Terrorism' के नाम से मुंबई से प्रकाशित हुआ, लेकिन बाद में सत्य का ज्ञान होने पर अपनी पहली पुस्तक के लिए खेद व्यक्त करते हुए एस पुस्तक 'इस्लाम, आतंक? या आदर्श' लिखी.

भाग १.१


शुरुआत कुछ इस तरेह हुई की भारत सहित दुनिया में यदि कहीं विस्फोट हो या किसी व्यक्तियों की ह्त्या हो और उस घटना में संयोगवश मुसलमान शामिल हों तो उसे इस्लामिक आतंकवाद कहा गया.

थोड़े ही समय में ही मीडिया सहित कुछ लोगों ने अपने-अपने निजी फायेदे के लिए इसे सुनियोजिज़ तरीके से इस्लामिक आतंकवाद की परिभाषा में बदल दिया. इसे सुनियोजित प्रचार का परिणाम यह हुआ की आज कहीं भी विस्फोट हो जाए उसे तुरंत इस्लामिक आतंकवादी घटना मानकर ही चला जाता है.

इसी माहोल में पूरी दुनिया में जनता के बीच मीडिया के माध्यम से और पश्चिमी दुनिया सहित कई अलग अलग देशों में अलग अलग भाषाओं में सैकड़ो किताबे लिख लिख कर ये प्रचारित किया गया की दुनिया में आतंकवाद की जड़ सिर्फ इस्लाम है.

इस दुष्प्रचार में यह प्रमाणित किया गया की कुरआन में अल्लाह की आयतें मुसलमानों को ये आदेश देती हैं की - वे, अन्य धर्म मानने वाले काफिरों से लादेन उनकी बेरहमी के साथ ह्त्या करें या उन्हें आतंकित कर ज़बरदस्ती मुसलमान बनाएं, उनके पूजास्थलों को नष्ट करें - यह जिहाद है और जिहाद करने वाले को अल्लाह जन्नत देगा. इस तरेह योजनाबद्ध तरीके से इस्लाम को बदनाम करने के लिए उसे निर्दोषों की ह्त्या कराने वाला आतंकवादी धर्म घोषित कर दिया गया और जिहाद का मतलब आतंकवाद बताया गया.

सच्चाई क्या है? यह जानने के लिए हम वही तरीका अपनाएंगे जिस तरीके से हमें सच्चाई का ज्ञान हुआ था. मेरे द्वारा शुद्ध मन से किये गए इस पवित्र प्रयास में यदि अनजाने में कोई गलती हो गई हो तो उसके लिए पाठक मुझे क्षमा करेंगे.

इस्लाम के बारे में कुछ भी प्रमाणित करने के लिए यहाँ हम ३ कसौटियां लेंगे-

  1. कुरआन मजीद में अलाह के आदेश
  2. पैगम्बर मोहम्मद(सल्लल्लाहु अलेही व सल्लम) के जीवनी
  3. हज़रात मुहम्मद(सल्लल्लाहु अलेही व सल्लम) की कथनी यानी हदीस.

इन तीनो कसौटियों से अब हम देखते हैं की:

  • [क्या वास्तव में इस्लाम निर्दोशो को लड़ने और उनकी ह्त्या करने व हिंसा फैलाने का आदेश देता है?
  • [क्या वास्तव में इस्लाम लोगों को ज़बरदस्ती मुसलमान बनाने का आदेश देता है?
  • [क्या वास्तव में हमला करने, निर्दोषों की ह्त्या करने व आतंक फैलाने का नाम ही जिहाद है?
  • [क्या वास्तव में इस्लाम एक आतंकवादी धर्म है?

सर्वप्रथम एस बताना आवश्यक है की हज्तर मोहम्मद (सल्ल०) अलाह के महत्वपूर्ण व अंतिम पैगम्बर है. अलाह ने आसमान से कुरआन आप पर ही उतारा. अलाह का रसूल होने के बाद से जीवन पर्यंत २३ सालो से आप (सल्ल०) ने जो किया, वह कुरआन के अनुसार ही किया.

दुसरे शब्दों में हज़रात मोहम्मद (सल्ल०) के जीवन के यह २३ साल कुरआन या इस्लाम का व्यावहारिक रूप हैं. आतः कुरआन या इस्लाम को जानने का सबसे महत्वपूर्ण और आसान तरीका हज़रात मुहम्मद (सल्ल०) की पवित्र जीवनी है, यह मेरा स्वयं का अनुभव है. आपकी जीवनी और कुरआन मजीद पढ़कर पाठक स्वयं निर्णय कर सकते हैं की इस्लाम एक आतंक है? या आदर्श.

भाग १.२


उलमा-ए-सीयर (यानी की पवित्र जीवनी लिखने वाले विद्वान्) लिखते हैं की- पगाम्बर मोहम्मद सल्लल्लाहु अलेही व सल्लम का जन्म मक्का के कुरैश कबीले के सरदार अब्दुल मुत्तलिब के बेटे अब्दुलाह के घर सन ५७० ई० में हुआ. मुहम्मद (सल्ल०) के जन्म से पहले ही उनके पिटा अब्दुल्लाह का निधन होगया था. ८ साल की उम्र में दादा अब्दुल मुत्तलिब का भी देहांत होगया तो चाचा अबू-तालिब के संरक्षण में आप (सल्ल०) पले-बढे.

२५ वर्ष की आयु में आप (सल्ल०) का विवाह खजीदा से हुआ. खजीदा मका के एक बहुत ही समृद्धशाली व सम्मानित परिवार की विधवा महिला थीं.

उस समय मक्का के लोग काबा की ३६० मूर्तियों की उपासना करते थे. मक्का में मूर्ती पूजा का प्रचालन शाम (सीरिया) से आया. वहाँ सबसे पहले जो मूर्ती स्थापित की गई वह 'हबल' नाम के देवता की थी, जो सीरिया से लाइ गयी थे. इसके बाद 'इसाफ' और 'नैला' की मूर्तियाँ ज़मज़म नाम के कुएं पर स्थापित की गयीं. फिर हर कबीले ने अपनी-अपनी अलग-अलग मूर्तियाँ स्थापित कीं. जैसे कुरिल कबीले ने 'उज्जा' की, तैफ के कबीले ने 'लात' की. मदीने के औस और ख्ज्राज़ कबीलों ने 'मनात' की. ऐसे ही वाद, सुवास, यागुस, सूफ, नासर आदि प्रमुख मूर्तियाँ थी. इसके अलावा हजरत इब्राहीम, हजरत इस्माइल, हजरत ईसा आदि की तस्वीरें व मूर्तियाँ खाना काबा में मोजूद थीं.

ऐसी परिस्थितियों में ४० वर्ष की आयु में आप (सल्ल०) को प्रथम बार रमजान के महीने में मक्का से ६ मील की दूरी पर 'गारे हीरा' नामक गुफा में एक फ़रिश्ता जिब्रील से अल्लाह का सन्देश प्राप्त हुआ. इसके बाद अल्लाह के रसूल हजरत मुहम्मद (सल्ल०) को समय समय पर अल्लाह के आदेश मिलते रहे. अल्लाह के यही आदेश, कुरआन हैं.

आप (सल्ल०) लोगों को अल्लाह के पैगाम देने लगे की 'अल्लाह एक है उसका कोई शरीक हैं. केवल वही पूजा के योग्य है. सब लोग उसी की इबादत करो. अल्लाह ने मुझे नबी बनाया है. मुझ पर अपनी आयतें उतारी हैं ताकि मई लोगों को सत्य बताऊ, सीढ़ी सत्य की राह दिखाऊ' जो लोग मुहम्मद (सल्ल०) के इस पैगाम पर ईमान (यानी विश्वास) लाये, वे मुस्लिम अर्थात मुसलमान कहलाये.

बीवी खदीजा(रजि०) आप पर विश्वास लाकर पहली मुसलमान बनी. उसके बाद चचा अबू-तालिब के बेटे अली (रजि०) और मुह बोले बेटे ज़ैद व आप (सल्ल०) के गहरे दोस्त (रजि०) ने मुसलमान बनने के लिए "अशहदु अल्ला इलाह इल्लाल्लाहू व अशहदु अन्न मुहम्मादुर्र्रासूलाल्लाह" यानी "मई गवाही देता हूँ, अल्लाह के रसूल हैं." कह कर इस्लाम कबूल किया.
मक्का के अन्य लोग भी ईमान ( विश्वास) लाकर मुसलमान बनने लगे. कुछ समय बाद ही कुरैश के सरदारों को मालूम हो गया की आप (सल्ल०) अपने बाप-दादा के धर्म बहुदेववाद और मूर्तिपूजा के स्थान पर किसी नए धर्म का प्रचार कर रहे हैं और बाप-दादा के दीं को समाप्त कर रहे हैं. यह जानकार आप (सल्ल०) के अपने ही कबीले कुरे=ऐश के लोग बहुत क्रोधित हो गए. मक्का के सारे बहुइश्वर्वादि काफिर सरदार इकट्ठे होकर मुहम्मद (सल्ल०) की शिकायत लेकर आप के चचा अबू तालिब के पास गए. अबू तालिब ने मुहम्मद (सल्ल०) को बुलवाया और कहा- "मुहम्मद ये अपने कुरैश कबीले के असरदार सरदार हैं, और ये चाहते हैं की तुम यह प्रचार न करो की अल्लाह के सिवा कोई पूज्य नहीं है और अपने बाप-दादा के धर्म पर कायम रहो."

मुहम्मद (सल्ल०) ने 'ला इल-ह इल्लल्लाह' (अल्लाह के अलावा कोई पूज्य नहीं है) इस सत्य का प्रचार छोड़ने से इनकार कर दिया. कुरैश सरदार क्रोधित होकर चले गए.

इसके बाद कुरैश सरदारों ने ये तय किया की अब हम मुहम्मद को हर प्रकार से कुचल देंगे. वे मुहम्मद (सल्ल०) और साथियों को बेरहमी से तरह-तरह से सताते, अपमानित करते और उन पर पत्थर बरसाते.

इसके बाद भी आप (सल्ल०) ने उनकी दुष्टता का जवाब सदैव सज्जनता और सद्व्यवहार से ही दिया.

'सल्ल०' का पूर्णरूप है- 'सल्लल्लाहु अलेही व सल्लम'. जिसका अर्थ है- 'अल्लाह उन पर रहमत और सलामती की बारिश करे'.
हजरत मुहम्मद (सल्ल०) का नाम लेते या पढ़ते समय आदर देने के लिए इसका प्रयोग किया जाता है.


'रजि०' का पूर्ण रूप है- 'राज़ियाल्लाहू अन्हु', जिसका अर्थ है- ' अल्लाह उन से राज़ी हो' इस आदर सूचक शब्द का प्रयोग सहाबी* के नाम के साथ होता है.
* सहाबी उस मुसलमान को कहते हैं जिसे पैगम्बर हजरत मुहम्मद (सल्ल०) से मिलने का औभाग्य प्राप्त हुआ हो.
सहाबी का बहुवचन सहाबा होता है और स्त्रीलिंग सहाबिय:. सहबिय: के नाम के साथ रजि० को राजियाल्लाहू अन्हां पढ़ा जता है.

भाग १.३


मुहम्मद (सल्ल०) व आपके साथी मुसल्मोअनो के विरोध में कुरैश का साथ देने के लिए अरब के और बहुत से कबीले थे जिन्होंने आपस में यह समझोता कर लिया था की कोई कबीला किसी मुसलमान को पनाह नहीं देगा. प्रत्येक कबीले की ज़िम्मेदारी थी, जहाँ कहीं मुसलमान मिल जाए उनको खूब मारें-पीतें और हर तरेह से अपमानित करें, जिससे वे अपने बाप-दादा के धर्म की ओर लौट आने को मजबूर हो जाएँ.

दिन प्रतिदिन उनके अत्याचार बढ़ते गए. उन्होंने असहाय मुसलमानों को कैद किया, मारा-पीता, भूखा प्यासा रखा. मक्के की तपती रेट पर नंगा लिटाया, लोहे की गर्म छड़ों से दागा और तरेह-तरेह के अत्याचार लिए.

उदाहरण के लिए हज़रात यासिर(रजि०) और उनकी बीवी हज़रात सुम्य्या (रजि०) तथा उनके पुत्र हज़रात अम्मार (रजि०) मक्के के गरीब लोग थे और इस्लाम कबूल कर मुसलमान बन गए थे. उनके मुसलमान बन्ने से नाराज़ मक्के के काफिर उन्हें सज़ा देने के लिए जब कड़ी दोपहर हो जाती, तो उनके कपडे उता उन्हें तपती रेट पे लिटा देते.

हज़रात यासिर(रजि०) ने इन ज़ुल्मो को सहेते हुए तड़प-तड़प कर जान देदी. मुहम्मद (सल्ल०) व मुसलमानों का सबसे बड़ा विरोधी अबू जहल बड़ी बेदर्दी से हज़रात सुम्य्या (रजि०) के पीछे पडा रहता था . एक दिन उन्होंने अबू-ज़हेल को बद्दुआ देदी जिससे नाराज़ होकर अबू-जहेल ने भाला मार कर हज़रात सुम्य्या (रजि०) का क़त्ल करदिया. इस तरेह इस्लाम में हज़रात सुम्य्या(रजि०) ही सबसे पहले सत्य की रक्षा के लिए शहीद बनी.

दुष्ट कुरैश, हज़रात अम्मार (रजि०) को लोहे का कवच पहना लार धुप में लिटा देते. तपती हुई रेट पर लिटाने के बाद मारते-मारते बेहोश कर देते.
इस्लाम कबूल कर मुस्लमान बने हज़रात बिलाल (रजि०), कुरैश सरदार उमय्या के गुलाम थे. उमेय्या ने ये जानकार की बिलाल मुसलमान बन गए हैं, उनका खानापीना बंद करदिया. ठीक दोपहर में भूखे-प्यासे ही वह उन्हें बाहर पत्थर पर लिटा देता और छाती पर बहुत भारी पत्तःर रखवा कर कहता - "लो, मुसलमान बन्ने का मज़ा चखो."

उस समय जितने भी गुलाम मुस्लमान बन गए थे उन सभी पर इसी तरह के अत्यचार हो रहे थे. हज़रात मुहम्मद (सल्ल०) के जिगरी दोस्त हज़रात अबू-बक्र (रजि०) ने उन सब को खरीद-खरीद कर गुलामी से आज़ाद कर दिया.

काफ़िर कुरैश यदि किसी को कुरआन की आयते पढ़ते सुन लेते या नमाज़ पढ़ते देख लेते, तो पहले उनकी बहुत हसी उड़ाते फिर उसे बहुत सताते. इस डर के कारण मुसलमानों को नमाज़ पढनी होती तो छिपकर पढ़ते और कुरआन पढना होता तो धीमी आवाज़ में पढ़ते.

एक दिन कुरैश काबा में बैठे हुए थे. अब्दुल्लाह-बिन-मसूद (रजि०) काबा के पास नमाज़ पढने लगे, तो वहां बैठे सारे काफिर कुरैश उन पर टूट पड़े और उन्हें अब्दुल्लाह को मारते-मारते बे दम कर दिया.

जब मक्का में काफिरों के अत्याचार के कारण मुआल्मानो का जीना मुश्किल हो गया तो मुहम्मद (सल्ल०) ने उनसे कहा: "हबशा चले जाओ"

हबशा का बादशाह नज्ज़शी इसाई था. अल्लाह के रसूल का हुक्म पाते ही बहुत से मुसलमान हबशा चले गए. जब कुरैश को पता चाल तो उन्होंने अपने २ आदमियों को दूत बना कर हबशा के बादशाह के पास भेज कर कहलाया की "हमारे यहाँ के कुछ मुजरिमों ने भागकर आपके यहाँ शरण ली है. इन्होने हमारे धर्म से बगावत की है और आपका इसाई धर्म भी नहीं स्वीकार है, फिर भी अओके यहाँ रह रहे हैं. ये अपने बाप-दादा के धर्म से बगावत करके एक ऐसा धर्म लेकर चले हैं जिसे न हम जानते हैं और न आप. ये हमारे मुजरिम हैं, इनको लेने के लिए हम आये हैं."

बादशाह नज्ज़शी ने मुसलमानों से पूछा: 'तुम लोग कौनसा ऐसा नया धर्म लेकर चल रहे हो, जिसे हम नहीं जानते?"

इसपर मुसलमानों की और से हज़रात जाफर (रजि०) बोले- हे बादशाह! पहले हम लोग असभ्य और गवार थे, बुतों की पूजा करते थे, गंदे काम करते थे, पड़ोसियों से व आपस में झगडा करते रहते थे. इस बीच अल्लाह ने हमें अपना एक रसूल भेजा. उसने हमें सत्य-धर्म इस्लाम की और बुलाया. उसने हमें अलाह का ओईगाम देते हुए कहा: "हम केवल एक इश्वर की पूजा करे, बेजान बुतों की पूजा छोड़ दे, सत्य बोले और पड़ोसियों के साथ अच्छा व्यवहार करे, किसी के साथ अत्याचार और अन्याय न करें. व्यभिचार और गंदे कार्यों को छोड़ दें, अनाथों और कमजोरों का माल न खाएं, पाक दामन औरतों पर तोहमत न लगाएं, नमाज़ पढ़े और खैरात यानी की दान दे."

भाग १.४


हमने उस पैगाम को व उस को अच्चा जाना और उस पर ईमान यानी की विश्वास लाकर मुस्लमान बन गए.

हज़रात जाफर (रजि०) के जवाब से बादशाह नज्ज़शी बहुत प्रभावित हुआ. उसने दूतों को यह कह कर वापस करदिया की ये लोग अब यहीं रहेंगे.

मक्का में खत्ताब के पुत्र उम्र बड़े ही क्रोधी किन्तु बड़े बहादुर साहसी योद्धा थे. अल्लाह के रसूल (सल्ल०)ने अलाह से प्रार्थना की कि यदि उम्र ईमान लाकर मुसलमान बन जाएँ तो इस्लाम को बड़ी ही मदद मिले, लेकिन उम्र मुसलमानों के लिए बड़े ही निर्दयी थे. जब उन्हें ये मल्लों हुआ कि नज्ज़शी ने मुसलमानों को अपने यहाँ शरण दे दी है तो वह बहुत क्रोधित हुए. उम्र ने सोचा सारे फसाद कि जड़ मोहम्मद ही है, अब न उसे ही मार कर फसाद कि जड़ ही समाप्त कर दूंगा.

ऐसा सोच कर, उम्र तलवार उठा कर चल दिए. रास्ते में उनकी भेंट नुईम-बिन-अब्दुल्लाह से होगी जो पहले ही मुसलमान बन चुके थे, लेकिन उम्र को यह पता नहीं था. बातचीत में जब नुएम को पता चला कि उम्र, अल्लाह से रसूल (रजि०) का क़त्ल करने जा रहा है तो उन्होंने उम्र के इरादे का रुख बदलने को कहा: "तुम्हारी बाहें-बहेनोई मुसलमान हो गए हैं, पहले उनसे निबटो."

यह सुनते ही कि उनकी बाहें और बहनोई और मुहम्मद का दीं इस्लाम कबूल कर मुसलमान बन चुके हैं, उम्र गुस्से से पागल हो गए और सीधा बाहें के घर जा पहुचे.

भीतर से कुछ पढने कि आवाज़ आरही थी. उस समय खाब्बाब(रजि०) कुरआन पढ़ रहे थे. उम्र कि आवाज़ सुनते ही वे डर के आरे अन्दर छिप गए. कुरआन के जिन पन्नो को वो पढ़ रहे थे, उम्र कि बहिन फातिमा(रजि०) ने उन्हें छिपा दिया, फिर बहनोई सईद (रजि०) ने दरवाज़ा खोला.

उम्र ने ये कहते हुए कि, "क्या तुम लोग सोचते हो कि तुम्हारे मुसलमान बन ने कि मुझे खबर नहीं है?" ये कहते हुए उम्र ने बहन-बहेनोई को मारना पीटना शुरू कर दिया और इतना मारा कि बहन का सर फट गया. किन्तु इतना मार खाने के बाद भी बाहें ने इस्लाम छोड़ने से इनकार कर दिया.

बहन के इस दृढ संकल्प ने उम्र के इरादे को हिला कर रख दिया. उन्होंने अपनी बाहें से कुरआन के पन्ने पन्ने दिखाने को कहा. कुरआन के उन् पन्नो को पढने के बाद उम्र का मन भी बदल गया. अब वह मुसलमान बन ने का इरादा कर मुहम्मद (सल्ल०) से मिलने के लिए चल दिए.
उम्र ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से विनम्रता पूर्वक कहा: "मै इस्लाम स्वीकार करने आया हूँ. मई गवाही देता हूँ कि अल्लाह के अलावा कोई पूज्य नहीं है और मुहम्मद(सल्ल०) अल्लाह के रसूल हैं. अब मई मुसलमान हूँ."

इस तरहे से मुसलमानों कि संख्या निरंतर बढ़ रही थी. इसे रोकने के लिए कुरैश ने आपस में समझोता किया. इस समझोते के अनुसार कुरैश के सरदार आप(सल्ल०) के परिवार मुत्तलिब खानदान के पास गए और कहा: "मुहम्मद को हमारे हवाले करदो. हम उसे क़त्ल कर देंगे और इस खून के बदले हम तुमको बहुत सा धन देंगे. यदि एसा नहीं करोगे तो हम सब घेराव करके तुम लोगों को नज़रबंद रखेंगे. न तुमसे कभी कुछ खरीदेंगे, न बेचेंगे और न ही किसी प्रकार का लेनदेन केंगे. तुम सब भूख से तड़प-तड़प कर मर जाओगे."

लेकिन मुत्तलिब खानदान ने मुहम्मद (सल्ल०) को देने से इनकार करदिया, जिसके कारण मुहम्मद (सल्ल०) अपने चाचा अबू-तालिब और समूचे खानदान के साथ एक घाटी में नज़रबंद कर दिए गए. भूख के कारण उन्हें पत्ते तक खाना पड़ा. ऐसे कठिन समय में मुसलमानों के कुछ हमदर्दों के प्रयास से यह नज़रबंदी समाप्त हुई.

इसके कुछ दिनों बाद चाचा अबू तालिब चल बसे. थोड़े ही दिनों के बाद खादिजा(रजि०) भी नहीं रहीं.

मक्का के काफिरों ने बहुत कोशिश कि कि मुहम्मद (सल्ल०) अल्लाह का पैगाम पहुचना छोड़ दे. चाचा अबू-तालिब कि मौत के बाद उन काफ़िरो के हौसले और बढ़ गए. एक दिन आप (सल्ल०) काबा में नमाज़ पढ़ रहे थे कि किसी ने ओझडी (गंदगी) लाकर आपके ऊपर दाल दी, लेकिन आप ने न कुछ बुरा-भला कहा और न कोई बद्दुआ दी.

इसी प्रकार एक बार आप(सल्ल०) कहीं जा रहे थे, रास्ते में किसी ने आप के सर पर इत्ती दाल दी. आप घर वापस लौट आये. पिटा पर लगातार हो रहे अत्याचारों को सोच कर बेटी फातिमा आप का सर धोते हुए रोने लगी. आप (सल्ल०) ने बेटी को तसल्ली देते हुए कहा: "बेटी रो मत! अल्लाह तुम्हारे बाप कि मदद करेगा."

मुहम्मद (सल्ल०) जब कुरैश के ज़ुल्मो से तंग आ गए और उनकी ज्यादतियां असहनीय हो गयीं, तो आप(सल्ल०) ताइफ़* चले गए, लेकिन यहाँ किसी ने आप को ठहराना तक पसंद नहीं किया. अल्लाह के पैगाम को झूठा कह कर आपको अल्लाह का रसूल मानने से इनकार कर दिया.

सकीफ कबीले के सरदार ने तैफ के गुंडों को आप के पीछे लगा दिया, उन्होंने पत्थर मार मार कर आप को बुरी तरेह से ज़ख़्मी कर दिया. किसी तरेह आप ने अंगूर के एक बाग़ में छिप कर अपनी जान बचाई.

*ताइफ़ एक नखलिस्तान(रेगिस्तान के उपजाऊ भाग को नखलिस्तान कहते हैं) था जहाँ मक्का के अमीर कुरैश सरदारों के अंगूर के बाग़, खेती और महेल थे जिनकी देखभाल वहां का सफीक नाम का कबीला करता था.

भाग १.५

मक्के में कुरैश को जब ताइफ़ का सारा हाल मालूम हुआ तो वे बड़े खुश हुए और आप की खूब हंसी उड़ाई. उन्होंने आपस में तय कर लिया की मुहम्मद अगर वापस लौट कर मक्का आये तो उनका क़त्ल कर देंगे.

आप(सल्ल०) ताइफ़ से मक्का के लिए रवाना हुए. हीरा नामक स्थान पर पहुचे तो वहां पर कुरैश के कुछ लोग मिल गए. ये लोग आप(सल्ल०) के हमदर्द थे. उनसे मालूम हुआ कि कुरैश आप का क़त्ल करने को तैयार बैठे हैं.

अल्लाह के रसूल अपनी बीवी खदीजा के एक रिश्तेदार अदि के बेटे मूतइम की पनाह में मक्का दाखिल हुए. चूंकि मूतइम आपको पनाह दे चके थे, इसलिए कोइ कुछ बोला लेकिन आप(सल्ल०) जब काबा पहुचे, तो अबू-जाहल ने आप की हंसी उड़ाई.

आपने लगातार अबू-ज़हल के दुर्व्यवहार को देखते हुए पहली बार उसे सख्त चेतावनी दी और साथ ही कुरैश सरदारों को भी अंजाम भुगतने को तैयार रहने को कहा.

इसके बाद अल्लाह के रसूल(सल्ल०) ने अरब के अन्य कबीलों को इस्लाम कि और बुलाना शुरू करदिया. इससे मदीना में इस्लाम फैलने लगा.

मदीना वासियों ने अल्लाह के रसूल की बातों पर ईमान (विश्वास) लाने के साथ आप(सल्ल०) कि सुरक्षा करने कि भी प्रतिज्ञा कि. मदीना वालों ने आपस में तय कर लिया कि इसबार जब हज करने मक्का जायेंगे, तो अपने प्यारे रसूल(सल्ल०) को मदीना आने का निमंत्रण देंगे.

जब हज का समय आया तो मदीने से मुसलमानों और गैर मुसलमानों का एक बड़ा काफिला हज करने के लिए मक्का के लिए चला. मदीना के मुसलमानों कि आप(सल्ल०) से काबा में मुलाकात हुई. इनमे से ७५ लोगों ने जिनमे से २ औरतें भी थीं पहले से तय कि हुई जगह पर रात में फिर अल्लाह के रसूल से मुलाक़ात कि. अलाह के रसूल (सल्ल०) से बातचीत करने के बाद मदीना वालों ने सत्य कि और सत्य को बताने वाले अल्लाह से रसूल(सल्ल०) कि रक्षा करने कि बैयत(प्रतिजा) ली.

रात में हुई प्रतिजा कि पूरी खबर कुरैश को मिल गई थी. सुबह कुरैश को जब पता चल कि मदीना वाले निकल गए तो उन्होंने उनका पीछा किया पर वे पकड़ में न आये. लेकिन उनमे से एक व्यक्ति सअद (रजि०) पकड़ लिए गए. कुरैश उन्हें मारते पीटते बाल पकड़ कर घसीटते  हुए मक्का लाये.

मक्का में मुसलमानों के लिए कुरैश के अत्याचार असहनीय हो चुके थे. इससे आप(सल्ल०) ने मुसलमानों को मदीना चले जाने (हिजरत)  के लिए कहा और हिदायत दी कि एक एक, दो दो करके निकालो ताकि कुरैश तुम्हारा इरादा भांप सकें. मुसलमान चोरी चोरी-छिपे मदीने कि और जाने लगें. अधिकाँश मुसलमान निकल गयेलेकिन कुछ कुरैश कि पकड़ में आगये और कैद कर लिए गए. उन्हें बड़ी बेरहमी से सताया गया ताकि वे मुहम्मद(सल्ल०) के बताये धर्म को छोड़ कर अपने बाप-दादा के धर्म में लौट आयें.

अब मक्का में इन बंदी मुसलमानों के अलावा अल्लाह के रसूल (सल्ल०), अबू-बक्र (रजि०) और अली(रजि०) ही बचे थे, जिन पर काफिर कुरैश घात लगाए बैठे थे.

मदीना के लिए मुसलमानों कि हिजरत से यह हुआ कि मदीना में इस्लाम का प्रचार-प्रसार शुरू हो गया. लोग तेज़ी से मुसलमान बन्ने लगे.

मुसलमानों का जोर बढ़ने लगा. मदीना में मुसलमानों किबध्ती ताकत देख कर कुरैश चिंतिति हुए. अतः एक दिन कुरैश अपने मंत्रणा गृह 'दारुन्दावा' में जमा हुए. यहाँ सब ऐसी तरकीब सोचने लगे जिससे मुहमद का खात्मा हो जाए और इस्लाम का प्रवाह रुक जाए. अबू-ज़हल के प्रस्ताव पर सब कि राय से तय हुआ कि प्रत्येक कबीले से एक-एक व्यक्ति को लेकर एक साथ मुहम्मद पर हमला बोलकर उनकी कि ह्त्या कर दी जाए.  इससे मुहम्मद के परिवार वाले तमाम सम्मिलित कबीलों का मुकाबला नहीं कर पायेंगे और समझोता करने को मजबूर हो जायेंगे.

फिर पहले से तय हुई रात को काफिरों ने ह्त्या के लिए मुहम्मद(सल्ल०) के घर को हर तरफ से घेर लिया जिससे कि मुहम्मद(सल्ल०)  के बहार निकलते ही आप कि ह्त्या कर दें. लेकिन अल्लाह ने इस खतरे से आप(सल्ल०) को सावधान करदिया. आप(सल्ल०) ने अपने चचेरे भाई अली(सल्ल०) जो आपके ही साथ रहते थे, से कहा:- 

"अली! मुझ को अल्लाह से हिजरत का आदेश मिल चुका है. काफिर हमारी ह्त्या के लिए हमारे घर को घेरे हुए हैं. मई मदीना जा रहा हूँ, तुम मेरी चादर ओढ़ कर सो जाओ, अल्लाह तुम्हारी रक्षा करेगा, बाद में तुम भी मदीना चले आना."

हज़रात मुहम्मद (सल्ल०) अपने प्रिय साथी अबू-बक्र (रजि०) के साथ मदीना के लिए निकले. मदीना, मक्का से उत्तर दिशा कि और है, लेकिन दुश्मनों को धोखे में रखने के लिए आप(सल्ल०) मक्का से दक्षिण दिशा में यमन के रास्ते पर सोर कि गुफा में पहुचे. ३ दिन उसी गुफा में ठहरे रहे. जब आप (सल्ल०) व हज़रात अबू-बक्र (रजि०) कि तलाश बंद हो गई तब आप(सल्ल०) व अबू-बक्र (रजि०) गुफा से निकल कर मदीना कि और चल दिए.

कई दिन रात चलने के बाद २४ सितम्बर ६२२ ई० को मदीना से पहले कुबा नाम की बस्ती में पहुचे जहाँ मुसलमानों के कई परिवार आज़ाद थे. यहाँ आपने एक मस्जिद कि बुनियाद डाली, जो 'कुबा मस्जिद' के नाम से प्रसिद्ध है. यहीं पर अली(रजि०)  की आप (सल्ल०) से मुलाक़ात हो गई. कुछ दिन यहाँ ठहेरने के बाद आप(सल्ल०) मदीना पहुचे. मदीना पहुचने पर आप (सल्ल०) का सब ओर भव्या हार्दिक स्वागत हुआ.

भाग १.६

अलाह के रसूल (सल्ल०) के मदीना पहुचने के बाद वहां एकेश्वरवादी सत्य-धर्म इस्लाम बड़ी तेज़ी से बढ़ने लगा. हर कोई 'ला इला-ह इलाल्लाह मोहम्मदउर्सूलाल्लाह' यानी 'अलाह के अलावा कोई पूज्य नहीं और मुहम्मद (सल्ल०) अल्लाह के रसूल हैं.' की गूँज सुनाई देने लगी.

काफिर कुरैश, मुनाफिकों (यानी कपटाचारीयों) की मदद से मदीना की खबर लेते रहते. सत्य इस्लाम का प्रवाह रोकने के लिए, अब वे मदीना पर हमला करने की यौज्नाये बनाने लगे.

एक तरफ कुरैश लगातार कई सालों से मुसलमानों पर हर तरह के अत्याचार करने के साथ साथ उन्हें नाश्ता करने पर उतारू थे वहीँ दूसरी तरफ आप(सल्ल०) पर विश्वास लाने वालों(यानी मुसलमानों) को अपना वतन छोड़ना पड़ा, अपनी दोलत, जायदाद छोडनी पड़ी. इसके बाद भी मुसलमान सब्र का दामन थामे ही रहे. लेकिन अत्याचारियों ने मदीना में भी उनको पीछा न छोड़ा और एक बड़ी सेना के साथ मुसलमानों पर हमला कर दिया.

जब पानी सर से ऊपर हो गया तब अल्लाह ने भी मुसलमानों को लड़ने की इजाज़त देदी. अल्लाह का हुक्म आ पहुचा- 

कुरआन, सुरा २२, आयत ३९-

"जिन मुसलमानों से (खामखाह) लड़ाई की जाती है, उन को इजाज़त है (की वे भी लड़ें), क्योंकि उनपर ज़ुल्म हो रहा हैऔर खुदा(उनकी मदद करेगा, वह) यकीनन उनकी मदद पर कुदरत रखता है."

असत्य के लिए लड़ने वाले अत्याचारियों से युद्ध करने का आदेश अल्लाह की और से आचुका था. मुसलमानों को भी सत्य-धर्म इस्लाम की रक्षा के लिए तलवार उठाने की इजाज़त मिल चुकी थी. अब जिहाद (यानी की असत्य और आतंकवाद के विरोध के लिए प्रयास अर्थात धर्मयुद्ध) शुरू हो गया.

सत्य की स्थापना के लिए और अन्याय, अत्याचार तथा आतंक की समाप्ति के लिए किये गए जिहाद में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की विजय होती रही. मक्का व आसपास के काफ़िर मुशरिक औंधे मुह गिरे.

इसके बाद पैगम्बर मोहम्मद(सल्ल०) १०,००० मुसलमानों की सेना के साथ मक्का में असत्य व आतंकवाद की जड़ को समाप्त करने के लिए चले. अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की सफलताओं और मुसलमानों की अपार शक्ति देख मक्का के काफ़िरो ने हथियार दाल दिए. बिना किसी खून खराबे के मक्का फ़तेह कर लिया गया. इस तरह सत्य और शांति की जीत तथा असत्य और आतंकवाद की हार हुई.

मक्का, वही मक्का जहाँ कल अपमान था, आज स्वागत हो रहा था. उदारता और दयालुता की मूर्ति बने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उन सभी लोगों को माफ़ करदिया जिन्होंने आप और मुसलमानों पर बेदर्दी से ज़ुल्म किया ताथापना वतन छोड़ने को मजबूर किया था. आज वे ही मक्का वाले अल्लाह के रसूल के सामने ख़ुशी से कह रहे थे-
"ला इला-ह इल्लाह मुहम्म्दुर्र्सूलाल्लाह"
और झुण्ड के झुण्ड प्रतिजा कर रहे थे:
"अशहदु अल्ला इलाहू इल्लालाहू व अशहदु अन्न मुहम्म्दुर्र्सूलाल्लाह" (मई गवाही देता हूँ की अल्लाह के अलावा कोई पूज्य नहीं हैऔर मई गवाही देता हूँ की मुहम्मद(सल्ल०) अल्लाह के रसूल हैं.

हज़रात मुहम्मद(सल्ल०) की पवित्र जीवनी पढने के बाद मैंने पाया की आप(सल्ल०) ने एकेश्वरवाद के सत्य को स्थापित करने के लिए अपार कष्ट झेले हैं.

मक्का के काफिर सत्य धर्म की राह में रोड़ा डालने के लिए आप को तथा आपके बताये सत्य पर चलने वाले मुसलमानों को लगातार १३ साल तक हर तरह से प्रताड़ित व अपमानित करते रहे. इस घोर अत्याचार के बाद भी आप(सल्ल०) ने धैर्य बनाए रखा. यहाँ तक की आप को अपना वतन मक्का छोड़ कर मदीना जाना पडा. लेकिन मक्का के मुशरिक कुरैश ने आप(सल्ल०) का व मुसलमानों का पीछा यहाँ भी नहीं छुड़ा. जब पानी सर के ऊपर हो गया तो अपनी व मुसलमानों की तशा सत्य की रक्षा के लिए मजबूर होकर आप को लड़ना पडा. इस तरेह आप पर व मुसलमानों पर लड़ाई थोपी गई.

इन्ही परिस्थितियों में सत्या की रक्षा के लिए जिहाद(यानी आत्मरक्षा के लिए धर्मयुद्ध) की आयतें और अन्यायी तथा अत्याचारी काफिरों व मुशरिकों को दंड देने वाली आयतें अल्लाह की और से आप(सल्ल०) पर आसमान से उतरीं.

पैगम्बर हज़रात मोहम्मद(सल्ल०) द्वारा लड़ी गई लडाइयां आक्रमण के लिए न होकर, आक्रमण व आतंकवाद से बचाव के लिए थीं, क्यों की अत्याचारियों के साथ ऐसा किये बिना शान्ति की स्थापना नहीं हो सकती थी.

अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने सत्य तथा तथा शान्ति के लिए अंतीं सीमा तक धैर्य रखा और धैर्या की अंतिम सीमा से युद्ध की शुरुवात होती है. इस प्रकार का युद्ध ही धर्मयुद्ध (यानी जिहाद) कहलाता है.

विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है की कुरैश जिन्होंने आप व मुसलमानों पर भयानक अत्याचार किये थे, फतह मक्का (यानी मक्का विजय) के दिन वे थर ठाट कांप रहे थे की आज क्या होगा? लेकिन आप(सल्ल०) ने उन्हें माफ़ कर गले लगा लिया.

 पैगम्बर hazrat मोहम्मद (सल्ल०) की इस पवित्र जीवनी से सिद्धे होता है की इस्लाम का अंतिम उद्येश्य दुनिया में सत्या और शान्ति की स्थापना और आतंकवाद का विरोध है.

अतः इस्लाम को हिंसा व आतंक से जोड़ना सबसे बड़ा असत्य है. यदि कोई ऐसी घटना होती है तो उसको इस्लाम से या संपूर्ण समुदाय से जोड़ा निः जा सकता.

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