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भाग २.1

अब इस्लाम को विस्तार से जानने के लिये इस्लाम की बुनियाद क़ुरआन की ओर चलते हैं

इस्लाम, आतंक है ? या आदर्श. यह जानने के लिये मैं क़ुरआन माजिद की कुछ आयतें दे रहा हूँ जिन्हें मैंने मौलाना फ़तेह मोहम्मद खां जालंधरी द्वारा हिंदी में अनुवादित और महमूद एंड कंपनी मरोल पाइप लाइन मुंबई - 59 से प्रकाशित क़ुरआन माजिद से लिया है.

यह बात ध्यान देने योग्य है कि कुरआन का अनुवाद करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखना पड़ता है कि किसी भी आयत का भावार्थ ज़रा भी न बदलने पाये. क्योंकि किसी भी क़ीमत पर यह बदला नहीं जा सकता. इसलिए अलग-अलग भाषाओं में अलग-अलग अनुवादकों द्वारा कुरआन माजिद के किये गये अनुवाद का भाव एक ही रहता है.

क़ुरआन की शुरुआत ' बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम 'से होती है , जिसका अर्थ है -शुरू अल्लाह का नाम लेकर , जो बड़ा कृपालु , अत्यंत दयालु है."

ध्यान दें. ऐसा अल्लाह जो बड़ा कृपालु और अत्यंत दयालु है वह ऐसे फ़रमान कैसे जरी कर सकता है, जो किसी को कष्ट पहुँचाने वाले हों अथवा हिंसा या आतंक फैलाने वाले हों ? अल्लाह की इसी कृपालुता और दयालुता का पूर्ण प्रभाव अल्लाह के रसूल सल्ल० ) के व्यावहारिक जीवन में देखने को मिलता है.


क़ुरआन की आयतों से व पैग़म्बर मुहम्मद ( सल्ल० ) की जीवनी से पता चलता है कि मुसलमानों को उन काफ़िरों से लड़ने का आदेश दिया गया जो आक्रमणकारी थे, अत्यचारी थे. यह लड़ाई अपने बचाव के लिये थीं. देखें क़ुरआन माजिद में अल्लाह के आदेश:

"और ( ऐ मुहम्मद ! उस वक़्त को याद करो ) जब काफ़िर लोग तुम्हारे बारे में चाल चल रहे थे कि तुम को क़ैद कर दें या जान से मार डालें या ( वतन से ) निकल दें तो ( इधर से ) वे चाल चाल रहे थे और ( उधर ) ख़ुदा चाल चाल रहा था और ख़ुदा सबसे बेहतर चाल चलने वाला है.- क़ुरआन , सूरा 8, आयत -30 ये लोग हैं कि अपने घरों से ना-हक़ निकल दिए गये , ( उन्होंने कुछ कुसूर नहीं किया ) हां, यह कहते हैं कि हमारा परवरदिगार ख़ुदा है और अगर ख़ुदा लोगों को एक-दूसरे से न हटाता रहता तो ( राहिबों के ) पूजा-घर और ( ईसाईयों के ) गिरजे और ( यहूदियों की ) और ( मुसलमानों की ) मस्जिदें , जिन में ख़ुदा का बहुत-सा ज़िक्र किया जाता है, गिराई जा चुकी होतीं. और जो शख्स ख़ुदा की मदद करता है, ख़ुदा उस की मदद ज़रूर करता है. बेशक ख़ुदा ताक़त वाला और ग़ालिब ( यानी प्रभुत्वशाली ) है".
-क़ुरआन , सूरा २२, आयत - ४०

ये क्या कहते हैं कि इस ने क़ुरान खुद बना लिया है ? कह दो कि अगर सच्चे हो तुम भी ऐसी दस सूरतें बना लाओ और ख़ुदा के सिवा जिस-जिस को बुला सकते हो , बुला लो.-क़ुरआन, सूरा 11, आयत -13 ( ऐ पैग़म्बर ! ) काफ़िरों का शहरों में चलना-फिरना तुम्हें धोखा न दे.
-क़ुरआन , सूरा ३, आयत -१९६

जिन मुसलमानों से ( खामखाह ) लड़ाई की जाती है, उन को इजाज़त है ( की वे भी लड़ें ), क्योंकि उन पर ज़ुल्म हो रहा है और ख़ुदा ( उन की मदद करेगा ,वह ) यक़ीनन उन की मदद पर क़ुदरत रखता है.
-क़ुरआन, सूरा २२, आयत-39

और उनको ( यानि काफ़िर क़ुरैश को ) जहां पाओ , क़त्ल कर दो और जहां से उन्होंने तुमको निकला है ( यानि मक्का से ) वहां से तुम भी उनको निकल दो.
-क़ुरआन , सूरा २, आयत-191

जो लोग ख़ुदा और उसके रसूल से लड़ाई करें और मुल्क में फ़साद करने को दौड़ते फिरें, उन की यह सज़ा है की क़त्ल कर दिए जाएं या सूली पर चढ़ा दिए जाएं या उन के एक-एक तरफ़ के हाथ और एक-एक तरफ़ के पांव कट दिए जाएँ. यह तो दुनियां में उनकी रुसवाई है और आख़िरत ( यानी क़ियामत के दिन ) में उनके लिए बड़ा ( भारी ) अज़ाब ( तैयार ) है.
हाँ, जिन लोगों ने इस से पहले की तुम्हारे क़ाबू आ जाएं , तौबा कर ली तो जान रखो की ख़ुदा बख्शने वाला मेहरबान है.
-क़ुरआन , सूरा ५, आयत-33 ,३४

इस्लाम के बारे में झूठा प्रचार किया जाता है की कुरआन में अल्लाह के आदेशों के कारण ही मुस्लमान लोग ग़ैर-मुसलमानों का जीना हराम कर देते हैं, जबकि इस्लाम में कहीं भी निर्दोष से लड़ने की इजाज़त नहीं है,भले ही वह काफ़िर या मुशरिक या दुश्मन ही क्यों न हों. विशेष रूप से देखिये अल्लाह के ये आदेश:


जिन लोगों ने तुमसे दीन के बारे में जंग नहीं की और न तुम को तुम्हारे घरों से निकला,उन के साथ भलाई और इंसाफ का सुलूक करने से ख़ुदा तुम को मना नहीं करता. ख़ुदा तो इंसाफ करने वालों को दोस्त रखता है.
-कुरआन, सूरा ६०, आयत-८

ख़ुदा उन्हीं लोगों के साथ तुम को दोस्ती करने से मना करता है , जिन्होंने तुम से दीन के बारे में लड़ाई की और तुम को तुम्हारे घरों से निकला और तुम्हारे निकलने में औरों की मदद की , तो जो लोग ऐसों से दोस्ती करेंगे , वही ज़ालिम हैं.
-क़ुरआन , सूरा ६०, आयत- ९

इस्लाम के दुश्मन के साथ भी ज्यादती करना मना है देखिये:
और जो लोग तुमसे लड़ते हैं, तुम भी ख़ुदा की राह में उनसे लड़ो , मगर ज्यादती न करना की ख़ुदा ज्यादती करने वालों को दोस्त नहीं रखता.
-क़ुरआन , सूरा २, आयत-१९०

ये ख़ुदा की आयतें हैं, जो हम तुम को सेहत के साथ पढ़ कर सुनाते हैं और अल्लाह अहले-आलम ( अथार्त जनता ) पर ज़ुल्म नहीं करना चाहता.
-क़ुरआन , सूरा ३, आयत- १०८

इस्लाम का प्रथम उद्देश्य दुनिया में शांति की स्थापना है, लड़ाई तो अंतिम विकल्प है यही तो आदर्श धर्म है, जो नीचे दी गईं इस आयत में दिखाई देता है: ऐ पैग़म्बर ! कुफ्फर से कह दो की अगर वे अपने फ़ेलों से बाज़ न आ जाएँ, तो जो चूका, वह माफ़ कर दिया जायेगा और अगर फिर ( वही हरकतें ) करने लगेंगे तो अगले लोगों का ( जो ) तरीका जरी हो चुका है ( वही उन के हक में बरता जायेगा )
-क़ुरआन ,सूरा ८, आयत-३८

इस्लाम में दुश्मनों के साथ अच्छा न्याय करने का आदेश, न्याय का सर्वोच्च आदर्श प्रस्तुत करता है इसे नीचे दी गई आयत में देखिये:
ऐ इमान वालों ! ख़ुदा के लिए इंसाफ़ की गवाही देने के लिए खड़े हो जाया करो और लोगों की दुश्मनी तुम को इस बात पर तैयार न करे की इंसाफ़ छोड़ दो. इंसाफ़ किया करो क़ि यही परहेज़गारी की बात है और ख़ुदा से डरते रहो. कुछ शक नहीं की ख़ुदा तुम्हारे तमाम कामों से ख़बरदार है.
-क़ुरआन , सूरा ५ आयत- ८

इस्लाम में किसी निर्दोष कि हत्या की इजाज़त नहीं है ऐसा करने वाले को एक ही सज़ा है, खून के बदले खून. लेकिन यह सज़ा केवल क़ातिल को ही मिलनी चाहिये और इसमें ज़्यादती मना है इसे ही तो कहते हैं सच्चा इंसाफ़. देखिये नीचे दिया गया अल्लाह का यह आदेश:
और जिस जानदार का मारना ख़ुदा ने हराम किया है, उसे क़त्ल न करना मगर जायज़ तौर पर ( यानि शरियत के फ़तवे के मुताबिक़ ) और जो शख्स ज़ुल्म से क़त्ल किया जाये , हम ने उसके वारिस को अख्तियार दिया है ( की ज़ालिम क़ातिल से बदला ले ) तो उसे चाहिये की क़त्ल ( के किसास ) में ज़्यादती न करे की वह मंसूर व फ़तेहयाब है.
-क़ुरआन , सूरा १७, आयत -३३

इस्लाम द्वारा, देश में हिंसा ( फ़साद ) करने की इजाज़त नहीं है. देखिये अल्लाह का यह आदेश:
लोगों को उन की चीज़ें कम न दिया करो और मुल्क में फ़साद न करते फिरो।
-क़ुरआन , सूरा २६, आयत-१८३

ज़ालिमों को अल्लाह की चेतावनी :
जो लोग ख़ुदा की आयतों को नहीं मानते और नबियों को ना-हक़ क़त्ल करते रहे हैं जो इंसाफ़ करने का हुक्म देते हैं , उन्हें भी मार डालते हैं उन को दुःख देने वाले अज़ाब की ख़ुश ख़बरी सुना दो.
-क़ुरआन , सूरा ३, आयत-२१ 

भाग २.२ :: सत्य के लिए कष्ट सहने वाले, लड़ने-मरने वाले इश्वर की कृपा के पात्र होंगे, उस के प्रिये होंगे

सत्य के लिए कष्ट सहने वाले, लड़ने-मरने वाले इश्वर की कृपा के पात्र होंगे, उस के प्रिये होंगे :

तो परवरदिगार ने उन की दुआ क़ुबूल कर ली। ( और फ़रमाया ) की मैं किसी अमल करने वाले को, मर्द हो या औरत ज़ाया नहीं करता। तुम एक दुसरे की जींस हो , तो जो लोग मेरे लिए वतन छोड़ गए और अपने घरों से निकले गये और सताये गये और लड़े और क़त्ल किये गये में उनके गुनाह दूर कर दूंगा. और उनको बहिश्तों में दाख़िल करूंगा, जिनके नीचे नहरें बह रही हैं. ( यह ) ख़ुदा के यहां से बदला है और ख़ुदा के यहां अच्छा बदला है.
-क़ुरआन , सूरा ३, आयत-१९५

इस्लाम को बदनाम करने के लिए लिख-लिख कर प्रचारित किया गया की इस्लाम तलवार के बल पर प्रचारित व प्रसारित मज़हब है. मक्का सहित सम्पूर्ण अरब व दुनिया के अधिकांश मुस्लमान,तलवार के जोर पर ही मुस्लमान बनाए गये थे इस तरह इस्लाम का प्रसार जोर-ज़बरदस्ती से हुआ.
जबकि इस्लाम में किसी को जोर ज़बरदस्ती से मुस्लमान बनाने की सख्त मनाही है. क़ुरआन माजिद में अल्लाह के ये आदेश :
और अगर तुम्हारा परवरदिगार ( यानि अल्लाह ) चाहता, तो जितने लोग ज़मीं पर हैं, सब के सब इमा ले आते. तो क्या तुम लोगों पर ज़बरदस्ती करना चाहते हो की वे मोमिन ( यानि मुस्लमान ) हो जाएं.
-क़ुरआन, सूरा 10 , आयत-99

'शुरू अल्लह का नाम लेकर, जो बड़ा कृपालु, अत्यंत दयालु है.'
( ऐ पैग़म्बर ! इस्लाम के इन नास्तिकों से ) कह दो कि ऐ काफ़िरों ! ( 1 )
जिन ( बुतों ) को तुम पूजते हो, उन को मैं नहीं पूजता , ( 2 )
और जिस ( ख़ुदा ) की मैं इबादत करता हूँ, उस की तुम इबादत नहीं करते, ( 3 )
और ( मैं फिर कहता हूँ कि ) जिन की तुम पूजा करते हो, उन की मैं पूजा नहीं करने वाला हूँ. ( 4 )
और न तुम उसकी बंदगी करने वाले ( मालूम होते ) हो, जिसकी मैं बंदगी करता हूँ. ( 5 )
तुम अपने दीन पर, मैं अपने दीन पर. ( 6 )
-क़ुरआन , सूरा १०९, आयत-१-६

ऐ पैग़म्बर ! अगर ये लोग तुमसे झगड़ने लगें, तो कहना कि मैं और मेरी पैरवी करने वाले तो ख़ुदा के फ़रमाँबरदार ( अथार्त आज्ञाकारी ) हो चुके और अहले किताब और अन-पढ़ लोगों से कहो कि क्या तुम भी ( ख़ुदा के फ़रमाँबरदार बनते और ) इस्लाम लाते हो ? अगर ये लोग इस्लाम ले आयें तो बेशक हिदायत पा लें और अगर ( तुम्हारा कहा ) न मानें, तो तुम्हारा काम सिर्फ ख़ुदा का पैग़ाम पहुंचा देना है. और ख़ुदा ( अपने ) बन्दों को देख रहा है.
-क़ुरआन , सूरा ३, आयात-२०

कह दो कि ऐ अहले किताब ! जो बात हमारे और तुम्हारे दरमियां एक ही ( मान ली गयी ) है , उसकी तरफ़ आओ, वह यह कि ख़ुदा के सिवा किसी की पूजा न करें और उसके साथ किसी चीज़ को शरीक ( यानि साझी ) न बनायें और हममें से कोई किसी को ख़ुदा के सिवा अपना करसाज़ न समझे. अगर ये लोग ( इस बात को ) न मानें तो ( उनसे ) कह दो कि तुम गवाह रहो कि हम ( ख़ुदा के ) फ़रमाँबरदार हैं.
-क़ुरआन , सूरा 3 , आयात-64

इस्लाम में , ज़ोर ज़बरदस्ती से धर्म परिवर्तन कि मनाही के साथ-साथ इससे भी आगे बढ़ कर किसी भी प्रकार कि ज़ोर-ज़बरदस्ती कि इजाज़त नहीं है. देखिये अल्लाह का यह आदेश :

दीं-ए-इस्लाम में ज़बरदस्ती नहीं है.
-क़ुरआन , सूरा २, आयात- २५६

हाँ, जो बुरे काम करे और उसके गुनाह ( हर तरफ़ से ) उसको घेर लें तो ऐसे लोग दोज़ख ( में जाने ) वाले हैं. ( और ) हमेशा उसमें ( जलते ) रहेंगे.
-क़ुरआन , सूरा २, आयात- ८१

निष्कर्ष- पैग़म्बर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की जीवनी व कुरआन मजीद की आयतों को देखने के बाद स्पष्ट है की हज़रत मुहम्मद ( सल्ल० ) की करनी और कुरआन की कथनी में कहीं भी आतंकवाद नहीं है.
इससे सिद्ध होता है की इस्लाम की अधूरी जानकारी रखने वाले ही अज्ञानता के कारन इस्लाम को आतंकवाद से जोड़ते हैं.

भाग ३.१ :: कुरआन की वे चौबीस आयतें

कुरआन की वे चौबीस आयतें
कुछ लोग कुरआन की 24 आयतों वाला एक पैम्फलेट कई सालों से देश की जनता के बीच बाँट रहे हैं जो भारत की लगभग सभी मुख्य क्षेत्रीय भाषों में छपता है. इस पैम्फलेट का शीर्षक है ' कुरआन की कुछ आयतें जो इमानवालों ( मुसलमानों ) को अन्य धर्मावलम्बियों से झगड़ा करने का आदेश देती हैं. जैसा की किताब की शुरुआत में ' जब मुझे सत्य की ज्ञान हुआ ' में मैंने लिखा है की इसी पर्चे को पढ़ कर मैं भ्रमित हो गया था. यह परचा जैसा छपा है, वैसा ही नीचे दे रहा हूँ :

कुरआन की कुछ आयतें जो इमानवालों ( मुसलमानों ) को अन्य धर्मावलम्बियों से झगड़ा करने का आदेश देती हैं.

१ -" फिर, जब हराम के महीने बीत जाएं , तो ' मुशरिकों' को जहाँ कहीं पाओ क़त्ल करो, और पकड़ो , और उन्हें घेरो, और हर घात की जगह उनकी ताक में बैठो. फिर यदि वे 'तौबा ' कर लें नमाज़ क़ायम करें और, ज़कात दें, तो उनका मार्ग छोड़ दो. नि:संदेह अल्लाह बड़ा क्षमाशील और दया करने वाला है."
- (१०, ९, ५)

२ -" हे ईमान' लेन वालो ! ' मुशरिक' ( मूर्तिपूजक ) नापाक हैं."
-(१०, ९, २८)

३ -" नि: संदेह ' काफ़िर ' तुम्हारे खुले दुश्मन हैं."
- (५, ४, १०१)

४ - " हे 'इमान' लाने वालों ! ( मुसलमानों ! ) उन ' काफ़िरों ' से लड़ो जो तुम्हारे आस-पास हैं , और चाहिए कि वे तुममें सखती पायें."
- (११, ९, १२३)

५ - " जिन लोगों ने हमारी 'आयतों ' का इंकार किया, उन्हें हम जल्द अग्नि में झोंक देंगे. जब उनकी खालें पाक जायेंगी तो हम उन्हें दूसरी खालों में बदल देंगे ताकि वे यातना का रसास्वादन कर लें. नि: संदेह अल्लाह प्रभुत्वशाली तत्वदर्शी है. "
- (५, ४, ५६)

६ - ' हे ' ईमान ' लेन वालो ! ( मुसलमानों ! ) अपने बापों और भाइयों को अपना मित्र मत बनाओ यदि वे ' ईमान ' की अपेक्षा ' कुफ़्र ' को पसंद करें. और तुम में से जो कोई उनसे मित्रता का नाता जोड़ेगा तो ऐसे ही लोग ज़ालिम होंगे."
- (१०, ९, २३)

७ - " अल्लाह 'काफ़िर ' लोगों को मार्ग नहीं दिखता."
- (१०, ९, ३७)

८ - " हे 'ईमान' लेन वालों ! ------और 'काफ़िरों' को अपना मित्र मत बनाओ. अल्लाह से डरते रहो यदि तुम ईमान वाले हो."
- (६, ५, ५७)

९ - " फिट्कारे हुए लोग ( ग़ैरमुस्लिम ) जहाँ कहीं पाये जायेंगे पकड़े जायेंगे और बुरी तरह क़त्ल किये जायेंगे."
- (२२, २३, ६१)

१० - " ( कहा जायेगा ) : निश्चेय ही तुम और वह जिसे तुम अल्लाह के सिवा पूजते थे ' जहन्नम ' का इंधन हो. तुम अवश्य उसके घाट उतरोगे."
- (१७, २१, ९८)

११ - " और उससे बढ़ कर ज़ालिम कौन होगा जिसे उसके ' रब ' की ' आयतों ' के द्वारा चेताया जाये , और फिर वह उनसे मुंह फेर ले. निश्चय ही हमें ऐसे अपराधियों से बदला लेना है."
- (२२, ३२, २२)

१२ - ' अल्लाह ने तुमसे बहुत सी ' गनिमतों ' ( लूट ) का वादा किया है जो तुम्हारे हाथ आयेंगी,"
- (२६, ४८, २०)

१३ - " तो जो कुछ ' गनीमत ' ( लूट ) का माल तुमने हासिल किया है उसे ' हलाल ' व पाक समझ कर खाओ,"
- (१०, ८, ६९)

१४ - ' हे नबी ! ' काफ़िरों ' और ' मुनाफ़िकों ' के साथ जिहाद करो, और उन पर सख्ती करो और उनका ठिकाना ' जहन्नम ' है , और बुरी जगह है जहाँ पहुंचे."
- (२८, ६६, ९)

१५ -" तो अवश्य हम ' कुफ्र ' करने वालों को यातना का मज़ा चखाएंगे, और अवश्य ही हम उन्हें सबसे बुरा बदला देंगे उस कर्म का जो वे करते थे."
- (२४, ४१, २७)

१६ - " यह बदला है अल्लाह के शत्रुओं का ( ' जहन्नम ' की ) आग. इसी में उनका सदा घर है. इसके बदले में की हमारी ' आयतों ' का इंकार करते थे."
- (२४, ४१, २८)

१७ - " " नि: संदेह अल्लाह ने ' ईमान वालों ( मुसलमानों ) से उनके प्राणों और मालों को इसके बदले में ख़रीद लिया है कि उनके लिये ' जन्नत ' है वे अल्लाह के मार्ग में लड़ते हैं तो मारते भी है और मारे भी जाते हैं."
- (११, ९, १११)

१८ - " अल्लाह ने इन मुनाफ़िक़ ( अर्ध मुस्लिम ) पुरूषों और मुनाफ़िक़ स्त्रियों और ' काफ़िरों ' से ' जहन्नुम ' कि आग का वादा किया है जिसमें वे सदा रहेंगे. यही उन्हें बस है. अल्लाह ने उन्हें लानत की और उनके लिये स्थायी यातना हैं. "
- (१०, ९, ६८)

१९ - हे नबी ! ' ईमान वालों ( मुसलमानों ) को लड़ाई पर उभारो. यदि तुम में 20 जमे रहने वाले होंगे तो वे 200 पर प्रभुत्व प्राप्त करेंगे , और यदि तुम में 100 हों तो 1000 ' काफ़िरों ' पर भरी रहेंगे , क्योंकि वे ऐसे लोग हैं जो समझ बूझ नहीं रखते. "
- (१०, ८, ६५)

२० - " हे ईमान वालों ( मुसलमानों ) तुम ' यहूदियों ' और ' ईसाईयों ' को मित्र न बनाओ. ये आपस में एक दूसरे के मित्र हैं. और जो कोई तुम में से उनको मित्र बनायेगा, वह उन्हीं में से होगा. नि: संदेह अल्लाह ज़ुल्म करने वालों को मार्ग नहीं दिखाता. "
- (६, ५, ५१)

२१ - " किताब वाले " जो न अल्लाह अपर 'ईमान' लाते हैं न अंतिम दिन पर, न उसे ' हराम ' करते जिसे अल्लाह और उसके ' रसूल ' ने हराम ठहराया है, और न सच्चे ' दीन ' को अपना ' दीन ' बनाते हैं , उनसे लड़ो यहाँ तक की वे अप्रतिशिष्ट ( अपमानित ) हो कर अपने हाथों से ' जिज़्या ' देने लगें."
- (१०, ९, २९)

२२ -" ----------- फिर हमनें उनके बीच 'क़ियामत ' के दिन तक के लिए वैमनस्य और द्वेष की आग भड़का दी, और अल्लाह जल्द उन्हें बता देगा जो कुछ वे करते रहे हैं."
- (६, ५, १४)

२३ - " वे चाहते हैं की जिस तरह से वे 'काफ़िर' हुए हैं उसी तरह से तुम भी ' काफ़िर ' हो जाओ , फिर तुम एक जैसे हो जाओ तो उनमें से किसी को अपना साथी न बनाना जब तक वे अल्लाह की राह में हिजरत न करें, और यदि वे इससे फिर जावें तो उन्हें जहाँ कहीं पाओ पकड़ो और उनका ( क़त्ल ) वध करो. और उनमें से किसी को साथी और सहायक मत बनाना."
- (५, ४, ८९)

२४ - " उन ( काफ़िरों ) से लड़ो ! अल्लाह तुम्हारे हाथों उन्हें यातना देगा , और उन्हें रुसवा करेगा और उनके मुक़ाबले में तुम्हारी सहायता करेगा , और 'ईमान ' वालों के दिल ठंडे करेगा."
- (१०, ९, १४)

उपरोक्त आयतों से स्पष्ट है की इनमें इर्ष्या, द्वेष , घृणा , कपट, लड़ाई-झगडा, लूट-मार और हत्या करने के आदेश मिलते हैं. इन्हीं कारणों से देश व विदेश में मुस्लिमों के बीच दंगे हुआ करते हैं.

भाग ३.२

दिल्ली प्रशासन ने सन् 1985  में सर्व श्री इन्द्रसेन शर्मा और राजकुमार आर्य के विरुद्ध दिल्ली के मैट्रोपोलिटन मैजिस्ट्रेट की अदालत में, उक्त पत्रक छापने के आरोप में मुक़द्दमा किया था । न्यायालय ने 31 जुलाई 1986 को उक्त दोनों महानुभावों को बरी करते हुए निर्णय दिया कि:

" कुरआन मजीद की पवित्र पुस्तक के प्रति आदर रखते हुए उक्त आयतों के सूक्षम अध्यन से स्पष्ट होता है कि ये आयतें बहुत हानिकारक हैं और घृणा की शिक्षा देती हैं, जिससे मुसलमानों और देश के अन्य वर्गों में भेदभाव को बढ़ावा मिलने की संभावना होती है ।"

हिन्दू रायटर्स फोरम , नयी दिल्ली - 27 द्वारा पुनर्मुद्रित एवं प्रकाशित

ऊपर दिए गए इस पैम्फलेट का सबसे पहले पोस्टर छापा गया  था । जिसे श्री इन्द्रसेन शर्मा ( तत्कालीन उप प्रधान, हिन्दू महासभा, दिल्ली ) और श्री राज कुमार आर्य ने छपवाया था । इस पोस्टर में कुरआन मजीद की आयतें, मोहम्मद फारूख खां द्वारा हिंदी अनुवादित तथा मक्तबा अल हसनात रामपुर से 1996 में प्रकाशित कुरआन मजीद से ली गई थीं । यह पोस्टर छपने के कारण इन दोनों लोगों पर इंडियन पेनल कोड की धरा 153 ए और 165 ए के अंतर्गत ( एफ० आइ० आर० 237/83यू0 /एस,235, 1पी०सी० हौज़ क़ाज़ी , पुलिस स्टेशन दिल्ली ) में मुक़द्दमा चला था जिसमें उक्त फ़ैसला हुआ था ।
अब हम देखेंगे की क्या इस पैम्फलेट की यह आयतें वास्तव में विभिन्न वर्गों के बीच घृणा फैलाने व झगड़ा करने वाली हैं ?


पैम्फलेट में लिखी पहले क्रम की आयत है :
1 - ' फिर जब हराम के महीने बीत जाएँ तो " मुशरिकों ' को जहाँ कहीं पाओ क़त्ल करो , और पकड़ो , और उन्हें घेरो , और हर घात की जगह उनकी ताक में बैठो। फिर यदि वे 'तौबा' कर लें नमाज़ क़ायम करें और, ज़कात दें , तो उनका मार्ग छोड़ दो । नि:संदेह अल्लाह बड़ा क्षमाशील और दया करने वाला है ।"

इस आयत के सन्दर्भ में-जैसा कि हज़रत मुहम्मद ( सल्ल० ) की जीवनी से स्पष्ट है की मक्का में और मदीना जाने के बाद भी मुशरिक काफ़िर कुरैश , अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) के पीछे पड़े थे । वह आप को सत्य-धर्म इस्लाम को समाप्त करने के लिए हर संभव कोशिश करते रहते । काफ़िर कुरैश ने अल्लाह के रसूल को कभी चैन से बैठने नहीं दिया । वह उनको सदैव सताते ही रहे । इसके लिए वह सदैव लड़ाई की साजिश रचते रहते ।
अल्लाह के रसूल ( सल्ल०) के हिजरत के छटवें साल ज़ीक़दा महीने में आप ( सल्ल० ) सैंकड़ों मुसलमानों के साथ हज के लिए मदीना से मक्का रवाना हुए । लेकिन मुनाफिकों  ( यानि कपटचारियों ) ने इसकी ख़बर क़ुरैश को दे दी । क़ुरैश पैग़म्बर मुहम्मद ( सल्ल० ) को घेरने का कोई मौक़ा हाथ से जाने न देते । इस बार भी वह घात लगाकर रस्ते में बैठ गये । इसकी ख़बर आप ( सल्ल० ) को लग गई । आपने रास्ता बदल दिया और मक्का के पास हुदैबिया कुँए के पास पड़ाव डाला । कुँए के नाम पर इस जगह का नाम हुदैबिया था ।
जब क़ुरैश को पता चला कि मुहम्मद अपने अनुयायी मुसलमानों के साथ मक्का के पास पहुँच चुके हैं और हुदैबिया पर पड़ाव डाले हुए हैं , तो काफ़िरों ने कुछ लोगों को आप की हत्या के लिए हुदैबिया भेजा, लेकिन वे सब हमले से पहले ही मुसलमानों द्वारा पकड़ लिए गये और अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) के सामने लाये गये । लेकिन आपने उन्हें ग़लती का एहसास कराकर माफ़ कर दिया ।


उसके बाद लड़ाई-झगड़ा, खून-ख़राबा टालने के लिए हज़रत उस्मान ( रज़ि० ) को क़ुरैश से बात करने के लिए भेजा । लेकिन क़ुरैश ने हज़रत उस्मान ( रज़ि०) को क़ैद कर लिया । उधर हुदैबिया में पड़ाव

डाले अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) को ख़बर लगी कि हज़रत उस्मान ( रज़ि० ) क़त्ल कर दिए गये । यह सुनते ही मुस्लमान हज़रत उस्मान ( रज़ि० ) के क़त्ल का बदला लेने के लिये तैयारी करने लगे ।
जब क़ुरैश को पता चला कि मुस्लमान अब मरने-मारने को तैयार हैं और अब युद्ध निश्चित है तो बातचीत के लिये सुहैल बिन अम्र को हज़रत मुहम्मद ( सल्ल० ) के पास हुदैबिया भेजा । सुहैल से मालूम हुआ कि उस्मान ( रज़ि० ) का क़त्ल नहीं हुआ वह क़ुरैश कि क़ैद में हैं । सुहैल ने हज़रत उस्मान ( रज़ि० ) को क़ैद से आज़ाद करने व युद्ध टालने के लिये कुछ शातें पेश कीं ।


[ पहली शर्त थी- इस साल आप सब बिना हज किये लौट जाएँ । अगले साल आएं लेकिन तीन दिन बाद चले जाएँ ।


[ दूसरी शर्त थी- हम क़ुरैश का कोई आदमी मुस्लमान बन कर यदि आए तो उसे हमें वापस किया जाये । लेकिन यदि कोई मुस्लमान मदीना छोड़कर मक्का में आ जाए, तो हम वापस नहीं करेंगे ।


[ तीसरी शर्त थी- कोई भी क़बीला अपनी मर्ज़ी से क़ुरैश के साथ या मुसलमानों के साथ शामिल हो सकता है ।


[ समझौते में चौथी शर्त थी- कि:- इन शर्तों को मानने के बाद क़ुरैश औए मुसलमान न एक दुसरे पर हमला करेंगे और न ही एक दुसरे के सहयोगी क़बीलों पर हमला करेंगे । यह समझौता 10  साल के लिए हुआ , हुबैदिया समझौते के नाम से जाना जाता है ।


हालाँकि यह शर्तें एक तरफ़ा और अन्यायपूर्ण थीं, फिर भी शांति और सब्र के दूत मुहम्मद ( सल्ल० ) ने इन्हें स्वीकार कर लिया , जिससे शांति स्थापित हो सके ।
लेकिन समझौता होने के दो ही साल बाद बनू-बक्र नामक

क़बीले ने जो मक्का के क़ुरैश का सहयोगी था, मुसलमानों के सहयोगी क़बीले खुज़ाआ पर हमला कर दिया । इस हमले में क़ुरैश ने बनू-बक्र क़बीले का साथ दिया ।
खुज़ाआ क़बीले के लोग भाग कर  हज़रत मुहम्मद ( सल्ल० ) के पास पहुंचे और इस हमले कि ख़बर दी । पैग़म्बर मुहम्मद ( सल्ल०) ने शांति के लिए इतना झुक कर समझौता किया था । इसके बाद भी क़ुरैश ने धोखा देकर समझौता तोड़ डाला ।


अब युद्ध एक आवश्यकता थी , धोखा देने वालों को दण्डित करना शांति कि स्थापना के लिए ज़रूरी था । इसी ज़रुरत को देखते हुए अल्लाह कि ओर से सूरा 9 की आयत नाज़िल हुई ।


इनके नाज़िल होने पर नबी ( सल्ल० ) ने सूरा 9 की आयतें सुनाने के लिए हज़रत ( रज़ि० ) को मुशरिकों के पास भेजा । हज़रत अली ( रज़ि० ) ने जाकर मुशरिकों से यह कहते हुए किमुसलमानों के लिए अल्लाह का फ़रमान आ चुका है उन को सूरा 9 की यह आयत सुना दी-


( ऐ मुसलमानों ! अब ) ख़ुदा और उसके रसूल की तरफ़ से मुशरिकों से, जिन तुम ने अह्द ( यानि समझौता ) कर रखा था, बे-ज़ारी ( और जंग की तैयारी ) है । (1 )
तो ( मुशरिको ! तुम ) ज़मीन में चार महीने चल फिर लो और जान रखो कि तुम को आजिज़ न कर सकोगे और यह भी कि ख़ुदा काफ़िरों को रुसवा करने वाला है । ( 2 )
और हज्जे-अकबर के दिन ख़ुदा और उसके रसूल कि तरफ़ से आगाह किया जाता है कि ख़ुदा मुशरिकों से बेज़ार है  और उसका रसूल भी ( उन से दस्तबरदार है ) । पस अगर तुम तौबा कर लो , तो तुम्हारे हक़ में बेहतर है और न मानो ( और ख़ुदा से मुक़ाबला करो ) तो जान रखो 
कि तुम ख़ुदा को हरा नहीं सकोगे और ( ऐ पैग़म्बर ! ) काफ़िरों को दु:ख देने वाले अज़ाब कि ख़बर सुना दो । ( 3 )
-कुरआन, पारा 10 , सूरा 9 , आयत- 1 ,2 ,3 ,

अली ने मुशरिकों से कह दिया कि " यह अल्लाह का फ़रमान है अब समझैता टूट चुका है और यह तुम्हारे द्वारा तोड़ा गया है इसलिये अब इज़्ज़त के चार महीने बीतने के बाद तुम से जंग ( यानि युद्ध ) है.


समझौता तोड़ कर हमला करने वालों पर जवाबी हमला कर उन्हें कुचल देना मुसलमानों का हक़ बनता था, वह भी मक्के के उन मुशरिकों के विरुद्ध जो मुसलमानों के लिए सदैव से अत्याचारी व आक्रमणकारी थे । इसलिये सर्वोच्च न्यायकर्ता अल्लाह ने पांचवीं आयत का फ़रमान भेजा ।
इस पांचवी आयत से पहले वाली चौथी आयत " अल-बत्ता, जिन मुशरिकों के साथ तुम ने अह्द किया हो, और उन्होंने तुम्हारा किसी तरह का क़ुसूर न किया हो और न तुम्हारे मुक़ाबले में किसी कि मदद की हो, तो जिस मुद्दत तक उसके साथ अह्द किया हो , उसे पूरा करो ( कि ) ख़ुदा परहेज़गारों को दोस्त रखता है ।
" - कुरआन, पारा 10 , सूरा 9 , आयत-4

से स्पष्ट है कि जंग का यह एलान उन मुशरिकों के विरुद्ध था जिन्होनें युद्ध के लिए उकसाया, मजबूर किया, उन मुशरिकों के विरुद्ध नहीं जिन्होनें ऐसा नहीं किया । युद्ध का यह एलान आत्मरक्षा व धर्मरक्षा के लिए था ।
अत: अन्यायियों , अत्याचारियों द्वारा ज़बदस्ती थोपे गये युद्ध से अपने बचाव के लिए किये जाने वाला नहीं कहा जा सकता ।

अत्याचारियों  और अन्यायियों से अपनी व धर्म की रक्षा के लिए युद्ध करना और युद्ध के लिए सैनिकों को उत्साहित करना धर्म सम्मत है  

इस पर्चे को छापने व बाँटने वाले लोग क्या यह नहीं जानते कि अत्याचारियों  और अन्यायियों के विनाश के लिए ही योगेश्वर श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था । क्या यह उपदेश लड़ाई-झगड़ा करने वाला या घृणा फैलाने वाला है? यदि नहीं, तो फिर कुरआन के लिए ऐसा क्यों कहा जाता है?
फिर यह सूरा उस समय मक्का के अत्याचारी मुशरिकों के विरुद्ध उतारी गयी । जो अल्लाह के रसूल के ही भाई-बन्धु  क़ुरैश थे । फिर इसे आज के सन्दर्भ में और हिन्दुओं के लिए क्यों लिया जा रहा है ? क्या हिन्दुओं व अन्य ग़ैरमुस्लिमों को उकसाने और उनके मन में मुसलमानों के लिए घृणा भरने तथा इस्लाम को बदनाम करने की घृणित साज़िश नहीं है

भाग ३.३

दिल्ली प्रशासन ने सन् 1985 में सर्व श्री इन्द्रसेन शर्मा और राजकुमार आर्य के विरुद्ध दिल्ली के मैट्रोपोलिटन मैजिस्ट्रेट की अदालत में, उक्त पत्रक छापने के आरोप में मुक़द्दमा किया था । न्यायालय ने 31 जुलाई 1986 को उक्त दोनों महानुभावों को बरी करते हुए निर्णय दिया कि:

" कुरआन मजीद की पवित्र पुस्तक के प्रति आदर रखते हुए उक्त आयतों के सूक्षम अध्यन से स्पष्ट होता है कि ये आयतें बहुत हानिकारक हैं और घृणा की शिक्षा देती हैं, जिससे मुसलमानों और देश के अन्य वर्गों में भेदभाव को बढ़ावा मिलने की संभावना होती है ।"

हिन्दू रायटर्स फोरम , नयी दिल्ली - 27 द्वारा पुनर्मुद्रित एवं प्रकाशित ।

ऊपर दिए गए इस पैम्फलेट का सबसे पहले पोस्टर छापा गया था । जिसे श्री इन्द्रसेन शर्मा ( तत्कालीन उप प्रधान, हिन्दू महासभा, दिल्ली ) और श्री राज कुमार आर्य ने छपवाया था । इस पोस्टर में कुरआन मजीद की आयतें, मोहम्मद फारूख खां द्वारा हिंदी अनुवादित तथा मक्तबा अल हसनात रामपुर से 1996 में प्रकाशित कुरआन मजीद से ली गई थीं । यह पोस्टर छपने के कारण इन दोनों लोगों पर इंडियन पेनल कोड की धरा 153 ए और 165 ए के अंतर्गत ( एफ० आइ० आर० 237/83यू0 /एस,235ए, 1पी०सी० हौज़ क़ाज़ी , पुलिस स्टेशन दिल्ली ) में मुक़द्दमा चला था जिसमें उक्त फ़ैसला हुआ था ।
अब हम देखेंगे की क्या इस पैम्फलेट की यह आयतें वास्तव में विभिन्न वर्गों के बीच घृणा फैलाने व झगड़ा करने वाली हैं ?

पैम्फलेट में लिखी पहले क्रम की आयत है :
1 - ' फिर जब हराम के महीने बीत जाएँ तो " मुशरिकों ' को जहाँ कहीं पाओ क़त्ल करो , और पकड़ो , और उन्हें घेरो , और हर घात की जगह उनकी ताक में बैठो। फिर यदि वे 'तौबा' कर लें नमाज़ क़ायम करें और, ज़कात दें , तो उनका मार्ग छोड़ दो । नि:संदेह अल्लाह बड़ा क्षमाशील और दया करने वाला है ।"

इस आयत के सन्दर्भ में-जैसा कि हज़रत मुहम्मद ( सल्ल० ) की जीवनी से स्पष्ट है की मक्का में और मदीना जाने के बाद भी मुशरिक काफ़िर कुरैश , अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) के पीछे पड़े थे । वह आप को सत्य-धर्म इस्लाम को समाप्त करने के लिए हर संभव कोशिश करते रहते । काफ़िर कुरैश ने अल्लाह के रसूल को कभी चैन से बैठने नहीं दिया । वह उनको सदैव सताते ही रहे । इसके लिए वह सदैव लड़ाई की साजिश रचते रहते ।
अल्लाह के रसूल ( सल्ल०) के हिजरत के छटवें साल ज़ीक़दा महीने में आप ( सल्ल० ) सैंकड़ों मुसलमानों के साथ हज के लिए मदीना से मक्का रवाना हुए । लेकिन मुनाफिकों ( यानि कपटचारियों ) ने इसकी ख़बर क़ुरैश को दे दी । क़ुरैश पैग़म्बर मुहम्मद ( सल्ल० ) को घेरने का कोई मौक़ा हाथ से जाने न देते । इस बार भी वह घात लगाकर रस्ते में बैठ गये । इसकी ख़बर आप ( सल्ल० ) को लग गई । आपने रास्ता बदल दिया और मक्का के पास हुदैबिया कुँए के पास पड़ाव डाला । कुँए के नाम पर इस जगह का नाम हुदैबिया था ।
जब क़ुरैश को पता चला कि मुहम्मद अपने अनुयायी मुसलमानों के साथ मक्का के पास पहुँच चुके हैं और हुदैबिया पर पड़ाव डाले हुए हैं , तो काफ़िरों ने कुछ लोगों को आप की हत्या के लिए हुदैबिया भेजा, लेकिन वे सब हमले से पहले ही मुसलमानों द्वारा पकड़ लिए गये और अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) के सामने लाये गये । लेकिन आपने उन्हें ग़लती का एहसास कराकर माफ़ कर दिया ।

उसके बाद लड़ाई-झगड़ा, खून-ख़राबा टालने के लिए हज़रत उस्मान ( रज़ि० ) को क़ुरैश से बात करने के लिए भेजा । लेकिन क़ुरैश ने हज़रत उस्मान ( रज़ि०) को क़ैद कर लिया । उधर हुदैबिया में पड़ाव

डाले अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) को ख़बर लगी कि हज़रत उस्मान ( रज़ि० ) क़त्ल कर दिए गये । यह सुनते ही मुस्लमान हज़रत उस्मान ( रज़ि० ) के क़त्ल का बदला लेने के लिये तैयारी करने लगे ।
जब क़ुरैश को पता चला कि मुस्लमान अब मरने-मारने को तैयार हैं और अब युद्ध निश्चित है तो बातचीत के लिये सुहैल बिन अम्र को हज़रत मुहम्मद ( सल्ल० ) के पास हुदैबिया भेजा । सुहैल से मालूम हुआ कि उस्मान ( रज़ि० ) का क़त्ल नहीं हुआ वह क़ुरैश कि क़ैद में हैं । सुहैल ने हज़रत उस्मान ( रज़ि० ) को क़ैद से आज़ाद करने व युद्ध टालने के लिये कुछ शातें पेश कीं ।

[ पहली शर्त थी- इस साल आप सब बिना हज किये लौट जाएँ । अगले साल आएं लेकिन तीन दिन बाद चले जाएँ ।


[ दूसरी शर्त थी- हम क़ुरैश का कोई आदमी मुस्लमान बन कर यदि आए तो उसे हमें वापस किया जाये । लेकिन यदि कोई मुस्लमान मदीना छोड़कर मक्का में आ जाए, तो हम वापस नहीं करेंगे ।


[ तीसरी शर्त थी- कोई भी क़बीला अपनी मर्ज़ी से क़ुरैश के साथ या मुसलमानों के साथ शामिल हो सकता है ।

[ समझौते में चौथी शर्त थी- कि:- इन शर्तों को मानने के बाद क़ुरैश औए मुसलमान न एक दुसरे पर हमला करेंगे और न ही एक दुसरे के सहयोगी क़बीलों पर हमला करेंगे । यह समझौता 10 साल के लिए हुआ , हुबैदिया समझौते के नाम से जाना जाता है ।

हालाँकि यह शर्तें एक तरफ़ा और अन्यायपूर्ण थीं, फिर भी शांति और सब्र के दूत मुहम्मद ( सल्ल० ) ने इन्हें स्वीकार कर लिया , जिससे शांति स्थापित हो सके ।
लेकिन समझौता होने के दो ही साल बाद बनू-बक्र नामक

क़बीले ने जो मक्का के क़ुरैश का सहयोगी था, मुसलमानों के सहयोगी क़बीले खुज़ाआ पर हमला कर दिया । इस हमले में क़ुरैश ने बनू-बक्र क़बीले का साथ दिया ।
खुज़ाआ क़बीले के लोग भाग कर हज़रत मुहम्मद ( सल्ल० ) के पास पहुंचे और इस हमले कि ख़बर दी । पैग़म्बर मुहम्मद ( सल्ल०) ने शांति के लिए इतना झुक कर समझौता किया था । इसके बाद भी क़ुरैश ने धोखा देकर समझौता तोड़ डाला ।

अब युद्ध एक आवश्यकता थी , धोखा देने वालों को दण्डित करना शांति कि स्थापना के लिए ज़रूरी था । इसी ज़रुरत को देखते हुए अल्लाह कि ओर से सूरा 9 की आयत नाज़िल हुई ।


इनके नाज़िल होने पर नबी ( सल्ल० ) ने सूरा 9 की आयतें सुनाने के लिए हज़रत ( रज़ि० ) को मुशरिकों के पास भेजा । हज़रत अली ( रज़ि० ) ने जाकर मुशरिकों से यह कहते हुए किमुसलमानों के लिए अल्लाह का फ़रमान आ चुका है उन को सूरा 9 की यह आयत सुना दी-

( ऐ मुसलमानों ! अब ) ख़ुदा और उसके रसूल की तरफ़ से मुशरिकों से, जिन तुम ने अह्द ( यानि समझौता ) कर रखा था, बे-ज़ारी ( और जंग की तैयारी ) है । (1 )
तो ( मुशरिको ! तुम ) ज़मीन में चार महीने चल फिर लो और जान रखो कि तुम को आजिज़ न कर सकोगे और यह भी कि ख़ुदा काफ़िरों को रुसवा करने वाला है । ( 2 )
और हज्जे-अकबर के दिन ख़ुदा और उसके रसूल कि तरफ़ से आगाह किया जाता है कि ख़ुदा मुशरिकों से बेज़ार है और उसका रसूल भी ( उन से दस्तबरदार है ) । पस अगर तुम तौबा कर लो , तो तुम्हारे हक़ में बेहतर है और न मानो ( और ख़ुदा से मुक़ाबला करो ) तो जान रखो कि तुम ख़ुदा को हरा नहीं सकोगे और ( ऐ पैग़म्बर ! ) काफ़िरों को दु:ख देने वाले अज़ाब कि ख़बर सुना दो । ( 3 )
-कुरआन, पारा 10 , सूरा 9 , आयत- 1 ,2 ,3 ,

अली ने मुशरिकों से कह दिया कि " यह अल्लाह का फ़रमान है अब समझैता टूट चुका है और यह तुम्हारे द्वारा तोड़ा गया है इसलिये अब इज़्ज़त के चार महीने बीतने के बाद तुम से जंग ( यानि युद्ध ) है.

समझौता तोड़ कर हमला करने वालों पर जवाबी हमला कर उन्हें कुचल देना मुसलमानों का हक़ बनता था, वह भी मक्के के उन मुशरिकों के विरुद्ध जो मुसलमानों के लिए सदैव से अत्याचारी व आक्रमणकारी थे । इसलिये सर्वोच्च न्यायकर्ता अल्लाह ने पांचवीं आयत का फ़रमान भेजा ।
इस पांचवी आयत से पहले वाली चौथी आयत " अल-बत्ता, जिन मुशरिकों के साथ तुम ने अह्द किया हो, और उन्होंने तुम्हारा किसी तरह का क़ुसूर न किया हो और न तुम्हारे मुक़ाबले में किसी कि मदद की हो, तो जिस मुद्दत तक उसके साथ अह्द किया हो , उसे पूरा करो ( कि ) ख़ुदा परहेज़गारों को दोस्त रखता है ।"
-कुरआन, पारा 10 , सूरा 9 , आयत-4

से स्पष्ट है कि जंग का यह एलान उन मुशरिकों के विरुद्ध था जिन्होनें युद्ध के लिए उकसाया, मजबूर किया, उन मुशरिकों के विरुद्ध नहीं जिन्होनें ऐसा नहीं किया । युद्ध का यह एलान आत्मरक्षा व धर्मरक्षा के लिए था ।
अत: अन्यायियों , अत्याचारियों द्वारा ज़बदस्ती थोपे गये युद्ध से अपने बचाव के लिए किये जाने वाला नहीं कहा जा सकता ।

अत्याचारियों और अन्यायियों से अपनी व धर्म की रक्षा के लिए युद्ध करना और युद्ध के लिए सैनिकों को उत्साहित करना धर्म सम्मत है ।

इस पर्चे को छापने व बाँटने वाले लोग क्या यह नहीं जानते कि अत्याचारियों और अन्यायियों के विनाश के लिए ही योगेश्वर श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था । क्या यह उपदेश लड़ाई-झगड़ा करने वाला या घृणा फैलाने वाला है? यदि नहीं, तो फिर कुरआन के लिए ऐसा क्यों कहा जाता है?
फिर यह सूरा उस समय मक्का के अत्याचारी मुशरिकों के विरुद्ध उतारी गयी । जो अल्लाह के रसूल के ही भाई-बन्धु क़ुरैश थे । फिर इसे आज के सन्दर्भ में और हिन्दुओं के लिए क्यों लिया जा रहा है ? क्या हिन्दुओं व अन्य ग़ैरमुस्लिमों को उकसाने और उनके मन में मुसलमानों के लिए घृणा भरने तथा इस्लाम को बदनाम करने की घृणित साज़िश नहीं है?

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