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भाग ५.१

एक्केश्वर सत्य-धर्म इस्लाम इस दुनिया में सदैव से था.
इस्लाम का 'तौहीद' यानी एकेश्वरवाद अलग-अलग देश में अलग-अलग नामो में मोजूद रहा है. जैसे:

वेदों में तोहीद (यानी एकेश्वरवाद):-

इस्लाम का प्रसिद्द नारा 'अल्लाहू अकबर' अर्थात अलाह सबसे बड़ा है). यह एक पूर्ण सत्य है, सार्वभोमिक सत्य है. यह सत्य तब भी था जब दुनिया नहीं थी, आज भी है ओर तब भी रहेगा जब प्रलय (यानी कियामत) के बाद यह दुनिया नहीं रहेगी. वेदों का भी मूल यही है. वेदों का कहना है:

'पूर्णस्य पोर्न मादाय पूर्न्मेवावाशिस्यते'

(परमेश्वर बहुत बड़ा है, इतना बड़ा है की ) उस पूर्ण में से पूर्ण को निकाल देने पर भी पूर्ण ही शेष बचता है. (अर्थात अल्लाह अनंत है, क्यों की केवल अनंत में से ही अनंत को निकाल देने पर सेष अनंत ही बचता है.)

वैदिक धर्म के सबसे महत्वपूर्ण धर्मग्रन्थ ऋग्वेद में इस्लाम का 'तोहीद' (यानी एकेश्वरवाद):-

सुरूप्क्रितुन्मुत्य सदुघामिव गोदुहे.
जुहुमासी द्व्विद्व्वी.
-ऋग्वेद, मंडल १, सूक्त ४, मंत्र

भावार्थ- जैसे दूध की इच्छा करने वाला मनुष्य दूध दोहने के लिए सुलभ दुहाने वाली गौओं को दोह के अपनी कामनाओं को पूर्ण कर लेता है, वैसे हम लोग सब दिन, अपने निकट स्थित मनुश्य्नो को विद्या की प्राप्ति के लिए परमेश्वर जो की अपने प्रकाश से सब पदार्थों को उत्तम रूप युक्त करने वाला है उसकी स्तुति करते हैं.
-हिंदी भवार्थ महर्षि दयानंद

त्वां सतोमा अवीव्र्धन तवामुक्था शतक्रतो.
त्वां वर्धन्तु नो गिरा:
- ऋग्वेद, मंडल १, सूक्त ५, मंत्र ८

भावार्थ- जो विश्व में पृथ्वी सूर्या आदि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रचे हुए पदार्थ है, वे सब जगत की उपपत्ति करने वाले तथा धन्यवाद देने के योग्य परमेश्वर ही को प्रसिद्द करके जानते हैं की जिससे न्याय और उपकार और इश्वर के गुणों को अच्छी प्रकार जानके विद्वान् भी वैसे ही कर्मो में प्रव्रत्त हों.
- हिंदी भाष्य महर्षि दयानानद

इन्द्रं वयं महाधन इन्द्रमार्भें हवामहे .
युजम व्रात्रेशु वज्रिणम.
- ऋग्वेद, मंडल १, सूक्त ७, मंत्र ५

भावार्थ- जो बड़े बड़े भारी और छोटे-छोटे युद्धों में इश्वर को सर्वव्यापक और रक्षा करने वाला मानके धर्म और उत्साह के साथ दुष्टों से युद्ध करें तो मनुष्यों का निश्चित रूप से विजय होता है. तथा जैसे ईश्वर भी सूर्या और वायु के निमित्त से वर्षा आदि के द्वारा संसार का अत्यंत सुख सिद्ध किया करता है, वैसे मनुष्य लोगों को भी पदार्थों को निमित्त करके कार्य सिद्धि करनी चाहिए.
- हिंदी भाष्य महर्षि दयानंद

य एकश्च्र्षणीना वासुनामिर्ज्यती.
इन्द्र: पञ्च क्शितिनाम 
- ऋग्वेद, मंडल १, सूक्त ७, मंत्र ९

भावार्थ - जो सबका अन्तर्यामी व्यापक और ऐश्वर्य का देने वाला, जिससे कोई दुसरा ईश्वर और जिसको किसी दुसरे सहाय की इच्छा नहीं है, वही सब मनुष्यों को इष्ट बुद्धि से सेवा करने योग्य है.

जो मनुष्य उस परमेश्वर को छोड़ के दुसरे को ईष्ट देव मानता है, वह भाग्यहीन बड़े-बड़े घोर दुखों से सदा प्राप्त होता है.
-हिंदी भाष्य महर्षि दयानंद

इन्द्रं वो विश्वतास्परी हवामहे जनेभ्य:
अस्माकमस्तु केवल:
- ऋग्वेद, मंडल १, सूक्त ७, मंत्र १०

भावार्थ- हे मनुष्यों! तुम को अत्यंत उचित है की मुझको छोड़कर उपासना करने योग्य किसी दुसरे देव को कभी मत मानो, क्योंकि एक मुझ को छोड़कर कोई दूसरा ईश्वर नहीं है.
- हिंदी भाष्य महर्षि दयानंद

त्वम् भुवा: प्रतिमान प्रथ्विया ऋश्वावीरास्या बृहत: पतिर्भू:
विश्वमाप्रा अन्तरिक्षम महित्वा सत्यमद्धा नाकिरान्यस्तवावान
- ऋग्वेद, मंडल १, सूक्त ५२, मंत्र १३

भावार्थ- परमेश्वर ही सब जगत की रचना परिमाण व्यापक और सत्य का प्रकाश करने वाला है इससे ईश्वर के सद्रश कोई पदार्थ ना हुआ है न होगा ऐसा समझ के हमलोग उसी की उपासना करें.
- हिंदी भाष्य महर्षि दयानंद

भाग ५.२

पारी धामानि यानी ते त्वं सोमासी विश्वतः
पवमान ऋतुभिः 
- ऋग्वेद, मंडल ९, सूक्त ६६, मंत्र ३


भावार्थ- पर्मान्मा उत्पत्ति, स्थति तथा प्रलय (यानी कियामत) तीनो प्रकार की क्रियाओं का हेतु है. अर्थात उसी से संसार की उत्पत्ति और उसी में स्थति और उसी से प्रलय होता है.
- हिन्दी भाष्य महर्षि दयानंद

त्वं धां च महिव्रत प्रिथ्विम छाती उभ्रिशे.
प्रति डरापिममुन्च्थाह पवमान महित्वना
- ऋग्वेद, मंडल ९, सूक्त १००, मंत्र ९

भावार्थ- परमेश्वर ने द्युलोक, और पृथ्वीलोक को ऐश्वर्यशाली बनाकर उसे अपने रक्षा कवच से आक्षादित किया ऐसी विच्त्र रचना से इस अनंत ब्रम्हांड को रचा है की उसके महत्व को कोई नहीं पा सकता.
- हिंदी भाष्य महर्षि दयानंद

यो: न पिटा जनिता यो विधाता धामनी वेड भुवनानि विश्वा
यो देवना नामधा एक एव सम्प्रश्नम भुवना यन्त्यन्या
- ऋग्वेद, मंडल १०, सोकत ८२, मंत्र ३

भावार्थ- जो परमेश्वर हमारा पालक, हमारा उत्पन्न करने वाला जो समस्त जगत का निर्माता है और समस्त स्थानों और लोकों तथा पदार्थों को जानता है और जो समस्त पधार्थों का नाम रखने वाला है वही अद्वितीय (यानी उसके बराबर दुसरा कोई नहीं है). समस्त समस्याओं का वही एक मात्र समाधान है.
- हिंदी भाष्य महर्षि दयानंद



भाग ५.३

 अथर्ववेद में इस्लाम का 'तौहीद' (यानी एकेश्वरवाद):

दिवि इस्पष्टओ यजः सूर्यत्वगाव्याता हरसो देवस्य
मृदाद गन्धर्वों भुवनस्य यस्पतिरेक एव नमस्य: सुशेवा:
-अथर्ववेद , द्वितीय काण्ड, सूक्त २, मन्त्र  २

भावार्थ- प्रत्येक व्यवहार में स्पर्श किये हुए, पूजनीय, सूर्या को रूप देने वाला हमारे कुक्रोध और अध्दैविक, सर्व्सेवनीय  परमेश्वर की उपासना से सब को आनंद मिलता है.
- हिंदी भाष्य क्षेमकरण दास

यजुर्वेद में इस्लाम का 'तौहीद' (यानि एकेश्वरवाद)

अपां प्रिष्ठ्मसी योनिरग्ने: समुद्रमाभिता: पिन्व्मानम
वार्ध्मानो महा महाssआ च पुष्करे दिवो मात्रया वरिमन: प्रथावास्य 
-अजुर्वेद, तेरहवां अध्याय, मन्त्र २

भावार्थ- मनुष्यों को जिस सैट, चित और आनंदस्वरूप, सब जगत का रचने हारा, सर्वत्र व्यापक, सब से उत्तम और सर्वशक्तिमान ब्रह्म की उपासना से सम्पूर्ण विद्याती अनंत गुण प्राप्त होते हैं उसका सेवन क्यूँ न करना चाहिए
- हिंदी भाष्य महर्षि दयानंद

हिरान्यगर्भ: सम्वात्त्र्ताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत्
स दाधार प्रिथ्विम दवामुतेमाम कस्मैय देवाय हविषा विधेम
- अजुर्वेद, तेरहवां अध्याय, मन्त्र ४

भावार्थ- हे मनुष्यों. तुमको योग्य है की इस प्रसिद्द सृष्टि के रचने से पहले परमेश्वर ही विद्यमान था. जीव गाध निद्रा सुषुप्ति में लीन और जगत का कारण अत्यंत सूक्ष्मवास्था में आकाश के सामान एक रस स्थिर था. जिसने जगत को रच के धारण किया और जो अत्यंत समय में प्रलय (यानी कियामत) करता है. उसी परमात्मा को उपासना के योग्य मानो.
- हिंदी भाष्य महर्षि दयानंद

भद्र कर्निभी: श्र्नुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्ष्भिर्य्जत्रा:
स्थिरैरंदेस्तुश्तुवा सस्तानूभिव्यार्शेमाही देवहितं यदयुह:
-यजुर्वेद, पच्चीसवा अध्याय, मन्त्र २१

भावार्थ- जो मनुष्य विद्वानों के साथ से विद्वान् होकर सत्य सुने, सत्य देख और परमेश्वर की स्तुति करें तो बहुत अवस्था वाले हो. मनुष्यों को चाहिए की असत्य का सुनना, खोता देखना, झूठी स्तुति प्रार्थना परशंसा और व्यभिचार कभी न करे.
- हिंदी भाष्य महर्षि दयानंद

उपनिषदों में इस्लाम का 'तौहीद' (यानी एकेश्वरवाद)
याच्क्शुषा न पश्यति एन चक्षुषी पश्यति
तदेव ब्रह्म त्वम् विधि नेदं यदिदमुपासते
- केनोपनिषद, खंड १ 

भावार्थ- जिसे कोई नेत्र से नहीं देखता बल्कि जिसकी सहायता से नेत्र (अपने विषयों को ) देखते हैं उसी को तू ब्रह्म जान. जिस इस (देशकालावाछिन वास्तु) - की लोक उपासना करता है वह ब्रह्म नहीं है.
- शंकर भाश्यार्थ (आदि शक्रचार्य कृत भाष्य का अर्थ)

तस्माद्वा एते देवो अतितरामीवान्यान्देवआन्यादाग्निर्वायुरिन्द्रस्ते  
होंनानेदिश्ठं प्रस्प्रिशुस्ते होनात्प्रथ्मो विदांचकार ब्रह्म्हेती
-केनोपनिषद, खंड ४

अर्थ- क्यूंकि अग्नि, वायु और इन्द्र- इन देव्दाओं ने ही इस समीपस्थ ब्रह्म का स्पर्श किया था और उन्होंने ही उसे पहले पहले 'यह ब्रह्म है' ऐसा जाना था, अतः वे अन्य देवताओं से बढ़कर हुए
- शंकर भाश्यर्थ (आदि शंकराचार्य कृत भाष्य का अर्थ)

नैन्मुध्र्व न तिर्यन्चन न मध्ये परिजग्रब्हत
न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम मह्द्श:|| १९||
-श्वेताश्वतरोपनिषद, अध्याय ४

अर्थ- उसे ऊपर से, इधर-उधर से अथवा मध्य में भी कोई ग्रहण नहीं कर सकता. जिसका नाम महाद्शः है ऐसे उस ब्रह्म की कोई उपमा भी नहीं है
- शंकर भाश्यार्थ (आदि शंकराचार्या कृत भाष्य का अर्थ)

येनाव्रितम नित्यामिदम ही सर्व
ज्ञ: कालकारो गुणी सर्वविद्या:
तेनेशातम कर्म विवर्तते ह 
प्रिथ्व्यप्तेजोSनिल्खानी चित्यम  
-श्वेताश्वतारोपनिश्दम, अध्याय ६ 

अर्थ- जिसके द्वारा सर्वदा यह सब व्याप्त है तथा जो ज्ञानस्वरूप, काल का भी करता, निश्पाप्त्वादी गुनान और सर्वज्ञ है उसी से प्रेरित होकर यह पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं अकाश्रूप कर्म (जगद्रूप से) निर्वातित होता है; (अत: उस पर्पात्मा का चिंतन करना चाहिए)
- शंकर भाश्यार्थ (आदि शंकराचार्य कृत भाष्य का अर्थ)

भाग ५.४


न तस्य कार्य करण च विद्ते
न तत्स्माश्चाभ्याधिकाश्च दृश्यते
प्रास्य शक्तिर्विधैर्व श्रूयते
स्वाभाविकी ज्ञान बल क्रिया च ।। ८ ।।

-श्वेताश्वतारोपनिश्दम, अध्याय ६

अर्थ- उस (ब्रह्म) के शरीर और इन्द्रियाँ नहीं हैं. उसके सामान और उससे बढ़कर भी कोई दिखाई नहीं देता, उसकी पराशक्ति नाना ओरकार की ही सुनी जाती है और वह स्वाभाविकी ज्ञान क्रिया और बल क्रिया है.
- शंकर भाश्यर्थ (आदि शंकराचार्य कृत भाष्य का अर्थ)


न तस्य कश्चित्पतिरास्ती लोके
न चेशिता नैव च तस्य लिंगम।
सा कारणं कर्नाधिपधिपो
न चास्य कश्चिज्जनिता न चाधिप:।।९।।

-श्वेताश्वतारोपनिश्दम, अध्याय ६

अर्थ- ब्रम्हांड में उसका कोई स्वामी नहीं है, न तो कोई शासक या उसका चिन्ह ही है, वह संका कारण है और इन्द्रियाधिष्ठाता जीव का स्वामी है. उसका न कोई उत्पत्ति करता है न स्वामी है.

- शंकर भाश्यर्थ (आदि  शंकराचार्य  कृत भाष्य का अर्थ)

एको देव: सर्वभूतेषु गूढ़:
सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा।।
कर्माध्यक्ष: सर्भूताधिवास:
कर्माध्यक्ष: सर्वभूताधिवास:
-श्वेताश्वतारोपनिश्दम, अध्याय ६


अर्थ: समस्त प्राणियों में इस्थित एक ब्रह्म है (वह सर्वव्यापक, समस्त भूतों का अंतरात्मा, कर्मो का अधिष्ठ, समस्त प्राणियों में बसा हुआ, सबका साक्षी, सबको चेतनत्व प्रदान करने वाला है।
- शंकर भाश्यर्थ (आदि  शंकराचार्य  कृत भाष्य का अर्थ)

यो ब्रह्मण विद्यादाती पूर्व
यो वी वेदाश्च प्रहिणोति तस्मै।
तहं देव्मात्न्बुद्धिप्रकाषम
मुमुक्षुवे शरणमहम प्रपद्ये ।।१८।।
-श्वेताश्वतारोपनिश्दम, अध्याय ६


अर्थ: जो श्रृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा को उत्पन्न करता है और जो उसके लिए वेदों को प्रवृत्त करता है, अपनी बुद्धि को प्रकाशित करने वाले उस ब्रह्म की मई मुमुक्ष शरण ग्रहण करता हूँ।
- शंकर भाश्यर्थ (आदि  शंकराचार्य  कृत भाष्य का अर्थ)

-श्वेताश्वतारोपनिश्दम, अध्याय ६

भाग ५.५

श्रीमद भगवतगीता में इस्लाम का 'तौहीद' (यानी एकेश्वरवाद):

ब्रम्हार्पण ब्रम्ह हविर्ब्रम्हाग्नो ब्राम्हण हुतं।
ब्रम्हैव तें गन्तव्यं ब्रम्ह्कर्म्समाधिना ।।२४।।
- गीता, अध्याय ४ 

(जिस यग्य में) अर्पण अर्थात श्रुवा आदि (भी) ब्रम्ह है (और) हवन किये जाने योग्य द्रव्य (भी) ब्रह्म है (तथा) ब्रह्म रूप करता द्वारा ब्रह्म रुपी अग्नि में आहूति देना रूप क्रिया ( भी ब्रह्म है) उस ब्रम्ह कर्म में स्थित रहने वाले योगी द्वारा प्राप्त किये जाने योग्य (फल भी) ब्रम्ह ही है ।।४।।

संकल्पप्रभावान्कामास्त्याक्तावा सर्वानशेषत:।
मन्सेवेंद्रिय्ग्रामं विनियम्य समंतत: ।।२४।।
शनै: शानैरूपर्मेद्बुद्धाया घ्रितिग्रिहीताया।।
आत्मसंस्थं मन: त्वा न किंचिदपि चिन्तयेत।।२५।।
- गीता, अध्याय ६  
संकल्प से उत्पन्न होने वाली सम्पूर्ण कामनाओ को नि:शेषरूप से त्याग कर (और) मन के द्वारा इन्द्रियों के समुदाय को सभी और से भली भाँती रोक कर।।२४।।

क्रम क्रम से (अभ्यास करता हुआ) उपरति को प्राप्त हो (तथा) धैर्य युक्त बुद्धि के द्वारा मन को परमात्मा में स्थिर करके (परमात्मा के सिवा और) कुछ भी चिंतन न करे।।२५।।
अहं कृत्स्नस्य जगत: प्रभव: प्रलयस्तथा:
- गीता, अध्याय ७, श्लोक ६
मै सम्पूर्ण ब्रम्हांड की उत्पत्ति तथा प्रलय (यानी कियामत का मूल कारण) हूँ।

मत्त: परतरं नान्यक्तिचिदास्ती धनञ्जय।
- गीता, अध्याय ७, श्लोक ७ 
हे धनञ्जय! मुझ (परमात्मा) से अलग दूसरा कोई भी परम (कारण) नहीं है।

कामैस्तैस्तैरह्र्ग्याना: प्रपद्यन्तेन्यादेवता:।
तं तं नयाम्मास्त्हाय प्रकृत्या नियतःह: स्वया।।२०।।
- गीता, अध्याय ७
उन-उन भोगों की कामना द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है, वे लोग अपने स्वभाव से प्रेरित होकर उस-उस नियम को धारण करके अन्य देवताओं को पूजते है।।२०।।

अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भाव्त्याल्प्मेध्साम।
देवान्देवयजो यान्ति मभ्दकता यान्ति मामपि।।२३।।
- गीता, अध्याय ७
परन्तु उन अल्प बुद्धि वालों का वह फल नाशवान है (तथा वे) देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं (ओर) मुझ (परमेश्वर) के भक्त मुझको ही प्राप्त होते हैं।।२३।।




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