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भाग ५.३

 अथर्ववेद में इस्लाम का 'तौहीद' (यानी एकेश्वरवाद):

दिवि इस्पष्टओ यजः सूर्यत्वगाव्याता हरसो देवस्य
मृदाद गन्धर्वों भुवनस्य यस्पतिरेक एव नमस्य: सुशेवा:
-अथर्ववेद , द्वितीय काण्ड, सूक्त २, मन्त्र  २

भावार्थ- प्रत्येक व्यवहार में स्पर्श किये हुए, पूजनीय, सूर्या को रूप देने वाला हमारे कुक्रोध और अध्दैविक, सर्व्सेवनीय  परमेश्वर की उपासना से सब को आनंद मिलता है.
- हिंदी भाष्य क्षेमकरण दास

यजुर्वेद में इस्लाम का 'तौहीद' (यानि एकेश्वरवाद)

अपां प्रिष्ठ्मसी योनिरग्ने: समुद्रमाभिता: पिन्व्मानम
वार्ध्मानो महा महाssआ च पुष्करे दिवो मात्रया वरिमन: प्रथावास्य 
-अजुर्वेद, तेरहवां अध्याय, मन्त्र २

भावार्थ- मनुष्यों को जिस सैट, चित और आनंदस्वरूप, सब जगत का रचने हारा, सर्वत्र व्यापक, सब से उत्तम और सर्वशक्तिमान ब्रह्म की उपासना से सम्पूर्ण विद्याती अनंत गुण प्राप्त होते हैं उसका सेवन क्यूँ न करना चाहिए
- हिंदी भाष्य महर्षि दयानंद

हिरान्यगर्भ: सम्वात्त्र्ताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत्
स दाधार प्रिथ्विम दवामुतेमाम कस्मैय देवाय हविषा विधेम
- अजुर्वेद, तेरहवां अध्याय, मन्त्र ४

भावार्थ- हे मनुष्यों. तुमको योग्य है की इस प्रसिद्द सृष्टि के रचने से पहले परमेश्वर ही विद्यमान था. जीव गाध निद्रा सुषुप्ति में लीन और जगत का कारण अत्यंत सूक्ष्मवास्था में आकाश के सामान एक रस स्थिर था. जिसने जगत को रच के धारण किया और जो अत्यंत समय में प्रलय (यानी कियामत) करता है. उसी परमात्मा को उपासना के योग्य मानो.
- हिंदी भाष्य महर्षि दयानंद

भद्र कर्निभी: श्र्नुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्ष्भिर्य्जत्रा:
स्थिरैरंदेस्तुश्तुवा सस्तानूभिव्यार्शेमाही देवहितं यदयुह:
-यजुर्वेद, पच्चीसवा अध्याय, मन्त्र २१

भावार्थ- जो मनुष्य विद्वानों के साथ से विद्वान् होकर सत्य सुने, सत्य देख और परमेश्वर की स्तुति करें तो बहुत अवस्था वाले हो. मनुष्यों को चाहिए की असत्य का सुनना, खोता देखना, झूठी स्तुति प्रार्थना परशंसा और व्यभिचार कभी न करे.
- हिंदी भाष्य महर्षि दयानंद

उपनिषदों में इस्लाम का 'तौहीद' (यानी एकेश्वरवाद)
याच्क्शुषा न पश्यति एन चक्षुषी पश्यति
तदेव ब्रह्म त्वम् विधि नेदं यदिदमुपासते
- केनोपनिषद, खंड १ 

भावार्थ- जिसे कोई नेत्र से नहीं देखता बल्कि जिसकी सहायता से नेत्र (अपने विषयों को ) देखते हैं उसी को तू ब्रह्म जान. जिस इस (देशकालावाछिन वास्तु) - की लोक उपासना करता है वह ब्रह्म नहीं है.
- शंकर भाश्यार्थ (आदि शक्रचार्य कृत भाष्य का अर्थ)

तस्माद्वा एते देवो अतितरामीवान्यान्देवआन्यादाग्निर्वायुरिन्द्रस्ते  
होंनानेदिश्ठं प्रस्प्रिशुस्ते होनात्प्रथ्मो विदांचकार ब्रह्म्हेती
-केनोपनिषद, खंड ४

अर्थ- क्यूंकि अग्नि, वायु और इन्द्र- इन देव्दाओं ने ही इस समीपस्थ ब्रह्म का स्पर्श किया था और उन्होंने ही उसे पहले पहले 'यह ब्रह्म है' ऐसा जाना था, अतः वे अन्य देवताओं से बढ़कर हुए
- शंकर भाश्यर्थ (आदि शंकराचार्य कृत भाष्य का अर्थ)

नैन्मुध्र्व न तिर्यन्चन न मध्ये परिजग्रब्हत
न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम मह्द्श:|| १९||
-श्वेताश्वतरोपनिषद, अध्याय ४

अर्थ- उसे ऊपर से, इधर-उधर से अथवा मध्य में भी कोई ग्रहण नहीं कर सकता. जिसका नाम महाद्शः है ऐसे उस ब्रह्म की कोई उपमा भी नहीं है
- शंकर भाश्यार्थ (आदि शंकराचार्या कृत भाष्य का अर्थ)

येनाव्रितम नित्यामिदम ही सर्व
ज्ञ: कालकारो गुणी सर्वविद्या:
तेनेशातम कर्म विवर्तते ह 
प्रिथ्व्यप्तेजोSनिल्खानी चित्यम  
-श्वेताश्वतारोपनिश्दम, अध्याय ६ 

अर्थ- जिसके द्वारा सर्वदा यह सब व्याप्त है तथा जो ज्ञानस्वरूप, काल का भी करता, निश्पाप्त्वादी गुनान और सर्वज्ञ है उसी से प्रेरित होकर यह पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं अकाश्रूप कर्म (जगद्रूप से) निर्वातित होता है; (अत: उस पर्पात्मा का चिंतन करना चाहिए)
- शंकर भाश्यार्थ (आदि शंकराचार्य कृत भाष्य का अर्थ)

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