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भाग ५.५

श्रीमद भगवतगीता में इस्लाम का 'तौहीद' (यानी एकेश्वरवाद):

ब्रम्हार्पण ब्रम्ह हविर्ब्रम्हाग्नो ब्राम्हण हुतं।
ब्रम्हैव तें गन्तव्यं ब्रम्ह्कर्म्समाधिना ।।२४।।
- गीता, अध्याय ४ 

(जिस यग्य में) अर्पण अर्थात श्रुवा आदि (भी) ब्रम्ह है (और) हवन किये जाने योग्य द्रव्य (भी) ब्रह्म है (तथा) ब्रह्म रूप करता द्वारा ब्रह्म रुपी अग्नि में आहूति देना रूप क्रिया ( भी ब्रह्म है) उस ब्रम्ह कर्म में स्थित रहने वाले योगी द्वारा प्राप्त किये जाने योग्य (फल भी) ब्रम्ह ही है ।।४।।

संकल्पप्रभावान्कामास्त्याक्तावा सर्वानशेषत:।
मन्सेवेंद्रिय्ग्रामं विनियम्य समंतत: ।।२४।।
शनै: शानैरूपर्मेद्बुद्धाया घ्रितिग्रिहीताया।।
आत्मसंस्थं मन: त्वा न किंचिदपि चिन्तयेत।।२५।।
- गीता, अध्याय ६  
संकल्प से उत्पन्न होने वाली सम्पूर्ण कामनाओ को नि:शेषरूप से त्याग कर (और) मन के द्वारा इन्द्रियों के समुदाय को सभी और से भली भाँती रोक कर।।२४।।

क्रम क्रम से (अभ्यास करता हुआ) उपरति को प्राप्त हो (तथा) धैर्य युक्त बुद्धि के द्वारा मन को परमात्मा में स्थिर करके (परमात्मा के सिवा और) कुछ भी चिंतन न करे।।२५।।
अहं कृत्स्नस्य जगत: प्रभव: प्रलयस्तथा:
- गीता, अध्याय ७, श्लोक ६
मै सम्पूर्ण ब्रम्हांड की उत्पत्ति तथा प्रलय (यानी कियामत का मूल कारण) हूँ।

मत्त: परतरं नान्यक्तिचिदास्ती धनञ्जय।
- गीता, अध्याय ७, श्लोक ७ 
हे धनञ्जय! मुझ (परमात्मा) से अलग दूसरा कोई भी परम (कारण) नहीं है।

कामैस्तैस्तैरह्र्ग्याना: प्रपद्यन्तेन्यादेवता:।
तं तं नयाम्मास्त्हाय प्रकृत्या नियतःह: स्वया।।२०।।
- गीता, अध्याय ७
उन-उन भोगों की कामना द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है, वे लोग अपने स्वभाव से प्रेरित होकर उस-उस नियम को धारण करके अन्य देवताओं को पूजते है।।२०।।

अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भाव्त्याल्प्मेध्साम।
देवान्देवयजो यान्ति मभ्दकता यान्ति मामपि।।२३।।
- गीता, अध्याय ७
परन्तु उन अल्प बुद्धि वालों का वह फल नाशवान है (तथा वे) देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं (ओर) मुझ (परमेश्वर) के भक्त मुझको ही प्राप्त होते हैं।।२३।।




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