पैग़म्बर हज़रात मुहम्मद (सल्ल०) की जीवनी, आप की कथनी और करनी तथा कुरआन मजीद में अल्लाह के आदेश ही इस्लाम है.
हजरत जरीर बिन अब्दुल्लाह (रजि०) कहते हैं की हजरत मुहम्मद (सल्ल०) न तो बे-हया थे, ना गाली बकने वाले, न किसी पर लानत करने वाले, बल्की अगर आप को किसी पर गुस्सा आ जाता, तो यों फरमाते की "ए क्या हो गया! उस के सर पर खाक़ !"
हजरत इब्ने उम्र (रजि०) कहते हैं की हजरत मुहम्मद रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने फरमाया "अगर मुसलमान किसी का हराम खून न बहाय, उस वक़्त तक उस दिन में फैलाव और ज्यादती ही होती रहेगी."
हजरत इब्ने अब्बास (रजि०) कहते हैं की नबी (सल्ल०) ने फरमाया "सभी जानदारों में अल्लाह तआला को ३ शक्स बुरे मालूम होते हैं'- मुल्के हरम में जुल्म करने वाला, दुसरा इस्लाम में जहालियत का तरीका अख्तियार करने वाला, तीसरा नाहक खून का चाहने वाला."
हजरत अबू हुर्रैरह (रजि०) कहते हैं की नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया की "जल्द ही तुमको अमारत की लालच होगी, लेकिन वह कियामत की दिन पछताने का ज़रिया होगा, उसकी शुरुआत तो अच्छी मालूम होगी, लेकिन अंजाम बुरा होगा."
हजरत माकल बिन यासर (रजि०) कहते हैं की नबी (सल्ल०) ने फरमाया, "जो हाकिम अपनी रिआया (यानी प्रजा) का बुरा चाहने वाला होकर मर जाएगा, तो अल्लाह ताआला उसपर जन्नत हराम कर देगा"
हजरत अबुबकर (रजि०) कहते हैं की हजरत मुहम्मद रसूलल्लाह (सल्ल०) ने फरमाया की, "हाकिम को चाहिए की गुस्से की हालत में किसी का फैसला न करे."
हजरत आयशा (रजि०) फरमाती है की हुज़ूर (सल्ल०) का इरशाद है की "अल्लाल ताआला के नजदीक सबसे ज्यादा बुरा हमेशा लड़ने-झगड़ने वाला आदमी है."
हजरत अब्दुल्लाह (रजि०) कहते हैं की नबी (सल्ल०) ने फरमाया की "जब तुम तीन आदमी हो, तो दो आदमी आपस में कानाफूसी न करें, जब तक (एक) न हो जाएँ, क्योँ की यह कानाफूसी तीसरे को दू:खी बनाती है."
हज्तर अब्दुल्लाह बिन उम्र (रजि०) कहते हैं की एक शख्स ने नबी(सल्ल०) से पूछा की कों इस्लाम बेहतर है? (हुजूर ने) फरमाया, "लोगो को खाना खिलाना और जान-पहचान और गैर जान-[एह्चान, दोनों को सलाम करना."
एक व्यक्ति ने पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल०) से कहा - "काफिरों के विरुद्ध से दुआ कीजिये, उन्हें लानत भेजिए." इस पर आप (सल्ल०) ने कहा: "मुझे दुनिया में दया के लिए भेजा गया है, लानत देने के लिए नहीं."
पैग़म्बर हजरत मुहम्मद (सल्ल०) की कथनी और करनी (यानी हदीस) से, आप की जीवनी से तथा कुरआन मजीद में अल्लाह की आयतें (जो भाग २, ३ व ४ में दीगई हैं) के विस्तृत अध्यन से पाठक स्वयं देख सकते हैं की इस्लाम ने शान्ति, दया व मानवता के उच्च व्यावहारिक आदर्शों को स्थापित किया.
हमने कुरआन मजीद में अल्लाह के आदेह देख लिए, हजरत मुहम्मद (सल्ल०) की जीवनी देखली. अब अल्लाह से रसूल (सल्ल०) की कथनी (हदीस) देखिये:
हदीस की सभी किताबों में सबसे महत्वपूर्ण किताब 'बुखारी शरीफ' है. दी गई हदीसें 'बुखारी शरीफ' की हदीसों के हिंदी अनुवाद के उस संकलन से ली गई है जिसका प्रकाशन मुरीद बुक डिपो बाज़ार चितली कब्र, दिल्ली-६ ने व हिंदी अनुवाद श्री कोसर यजदानी नदवी नि किया है.
हजरत अनस बिन मालिक (रजि०) कहते हैं की हुज़ूर (सल्ल०) का कथन है "अपने भाई की मदद करो चाहे वह ज़ालिम हो या मजलूम"
(आप से) अर्ज़ किया गया ,"ऐ रसूलुल्लाह (सल्ल०) ! मजलूम होने पर तो हम उसकी मदद कर सकते हैं, जालिम होने के वक़्त किस तरह मदद करें?" (हुज़ूर ने) फरमाया, "उसके हाथ पकड़ लो (यानी ज़ुल्म न करने दो)." हदीस १०४६ (पेज २७४)
-बुखारी शरीफ
हजरत जरीर बिन अब्दुल्लाह (रजि०) कहते हैं की हजरत मुहम्मद (सल्ल०) न तो बे-हया थे, ना गाली बकने वाले, न किसी पर लानत करने वाले, बल्की अगर आप को किसी पर गुस्सा आ जाता, तो यों फरमाते की "ए क्या हो गया! उस के सर पर खाक़ !"
हदीस १६८१ (पेज ४४९) - बुखारी शरीफ
हजरत इब्ने उम्र (रजि०) कहते हैं की हजरत मुहम्मद रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने फरमाया "अगर मुसलमान किसी का हराम खून न बहाय, उस वक़्त तक उस दिन में फैलाव और ज्यादती ही होती रहेगी."
हदीस १६९३ (पेज ४५१) - बुखारी शरीफ
हजरत इब्ने अब्बास (रजि०) कहते हैं की नबी (सल्ल०) ने फरमाया "सभी जानदारों में अल्लाह तआला को ३ शक्स बुरे मालूम होते हैं'- मुल्के हरम में जुल्म करने वाला, दुसरा इस्लाम में जहालियत का तरीका अख्तियार करने वाला, तीसरा नाहक खून का चाहने वाला."
हदीस १६९७ (पेज ४५२) - बुखारी शरीफ
हजरत अबू हुर्रैरह (रजि०) कहते हैं की नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया की "जल्द ही तुमको अमारत की लालच होगी, लेकिन वह कियामत की दिन पछताने का ज़रिया होगा, उसकी शुरुआत तो अच्छी मालूम होगी, लेकिन अंजाम बुरा होगा."
हदीस १७२५ (पेज ४५८) - बुखारी शरीफ़
हजरत माकल बिन यासर (रजि०) कहते हैं की नबी (सल्ल०) ने फरमाया, "जो हाकिम अपनी रिआया (यानी प्रजा) का बुरा चाहने वाला होकर मर जाएगा, तो अल्लाह ताआला उसपर जन्नत हराम कर देगा"
हदीस १७२७ (पेज ४५८) - बुखारी शरीफ़
हजरत अबुबकर (रजि०) कहते हैं की हजरत मुहम्मद रसूलल्लाह (सल्ल०) ने फरमाया की, "हाकिम को चाहिए की गुस्से की हालत में किसी का फैसला न करे."
हदीस १७२९ (पेज ४५८) - बुखारी शरीफ़
हजरत आयशा (रजि०) फरमाती है की हुज़ूर (सल्ल०) का इरशाद है की "अल्लाल ताआला के नजदीक सबसे ज्यादा बुरा हमेशा लड़ने-झगड़ने वाला आदमी है."
हदीस १७३० (पेज ४५८) - बुखारी शरीफ़
हजरत अब्दुल्लाह (रजि०) कहते हैं की नबी (सल्ल०) ने फरमाया की "जब तुम तीन आदमी हो, तो दो आदमी आपस में कानाफूसी न करें, जब तक (एक) न हो जाएँ, क्योँ की यह कानाफूसी तीसरे को दू:खी बनाती है."
हदीस १७३७ (पेज ४५९) - बुखारी शरीफ़
हज्तर अब्दुल्लाह बिन उम्र (रजि०) कहते हैं की एक शख्स ने नबी(सल्ल०) से पूछा की कों इस्लाम बेहतर है? (हुजूर ने) फरमाया, "लोगो को खाना खिलाना और जान-पहचान और गैर जान-[एह्चान, दोनों को सलाम करना."
हदीस १८०४ (पेज ४७१) - बुखारी शरीफ़
एक व्यक्ति ने पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल०) से कहा - "काफिरों के विरुद्ध से दुआ कीजिये, उन्हें लानत भेजिए." इस पर आप (सल्ल०) ने कहा: "मुझे दुनिया में दया के लिए भेजा गया है, लानत देने के लिए नहीं."
-मुस्लिम
पैग़म्बर हजरत मुहम्मद (सल्ल०) की कथनी और करनी (यानी हदीस) से, आप की जीवनी से तथा कुरआन मजीद में अल्लाह की आयतें (जो भाग २, ३ व ४ में दीगई हैं) के विस्तृत अध्यन से पाठक स्वयं देख सकते हैं की इस्लाम ने शान्ति, दया व मानवता के उच्च व्यावहारिक आदर्शों को स्थापित किया.
दुनिया में केवल कुरआन मजीद में ही ईश्वरीय (यानी आध्यात्मिक) सत्य के साथ-साथ व्यावहारिक सत्य भी हैं. अपनी इसी विशषता के कारण मक्का में प्रकट हुआ इस्लाम, साड़ी दुनिया में छा गया.
इसके बाद भी यदि कोई कुरआन मजीद में अल्लाह के इन आदेशों का गलत या मनचाहा अर्थ निकालता है तो इसके लिए कुरआन मजीद या इस्लाम ज़िम्मेदार नहीं है.
साथ ही पाठक यह भी निर्णय ले सकते हैं की सलमान रश्दी, अनवर शेख और तसलीमा नसरीन जैसे लेखकों ने पूर्वाग्रह से ग्रसित हो कर ही कुरआन मजीद की आयातों को आतंकवाद से जोड़ा.
इससे स्वयं सिद्ध होता है की इस्लाम में कहीं भी आतंकवाद का आदेश नहीं, बल्कि आतंक का ही विरोध है और जिहाद, आतंक नहीं बल्कि आत्मरक्षा के लिए, आतंकवाद के विरोध का प्रयास है.
जैसे मैंने अपनी पुस्तक 'इस्लामिन आतंकवाद का इतिहास' में हिन्दू राजाओं व मुस्लिम बादशाहों के बीच युद्ध में हुए खून खराबे ला उल्लेख लिया था. उसके बारे में अब मेरी समझ में आया है की वह खून-खराबा युद्ध का था, व्यक्ति विशेष का था, न की इस्लाम का. युद्ध में ऐसे खून-खराबे हर देश में, हर कओम में सदैव से होते रहे हैं. जिनसे- इतिहास में सिकंदर से हिटलर तक यही करते रहे हैं. अपने देश भारत में अशोक कलिंग विजय अभियान में एक लाख से अधिक लोग मारे गए थे. इस के इन आतंकवादी कार्यों के लिए इन का धर्म दोषी नहीं है. इसी तरह मुस्लिम बादशाहों के लिए भी ऐसा ही है.