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इस्लाम में गाय का महत्व


हम काफी समय से सुनते आ रहे हैं की गाय मारने की इजाज़त मुसलमानों को है जब की हिन्दू धर्म में गाय को देवता और माँ का दर्ज़ा दिया गया है।
हम इस ब्लॉग के माध्ह्यम से ये भ्रम लोगो के मन से मिटाना चाहते हैं की इस्लाम कभी भी गौ-हत्या की इजाजत नहीं देता। कुरआन-ऐ-पाक की आयातों में ऐसा व्याख्यान है।


इस्लाम में गाय का महत्व
1. गाय चौपायों की सरदार है- कुरान
2. गाय का दूध-घी शिफा (दवा) है और गौमांस बीमारी है- मोहम्मद साहब
3. खुदा के पास खून और गोश्त नहीं पहुँचता - त्याग की भावना पहुँचती है
4. एक धार्मिक महिला को बिल्ली को मारने के कारण दोजख मिला, एक बदनाम महिला को कुत्ते को पानी पिलाने के कारण जन्नत मिली.
9. गो हत्या करने वाले के विरुद्ध, क़यामत के दिन, मोहम्मद साहब गवाही देंगे- देव बंद के फतवे का सार, राष्ट्रीय मुस्लिम मंच
10. गाय के दूध से बने घी का सेवन करना चाहिये जबकि गाय का मांस हानिकारक है- मोहम्मद साहब

क्या है एंटी-इस्लाम फिल्म? (What is Anti-Islamic film?)


अमेरिका इस्थित कोप्टिक ग्रुप ने एक फिल्म का निर्माण किया है जिसका नाम है इनोसेंसे ऑफ मुस्लिम्स और ये फिल्म अरबी में भी डब की गई है. फिल्म के प्रोडूसर (निर्माता) हैं इजराइली-अमेरिकी सैम बेसाइल.

सैम एक रियल एस्टेट व्यापारी हैं और खुद को यहूदी बताते हैं. सैम ने ये फिल्म लगभग ५० लाख डालर में बनाई है जो की उन्होंने कुछ यहूदियों से मांग कर इकट्ठा किया था.फ्लोरिडा के टेरी जोंस नामक पादरी ने इस फिल्म का प्रोमोशन किया है। जोंस पहले से ही इस्लाम विरोधी रहे है और पहले भी कुर-आन की प्रतियों को जलाने की वजह से इनके खिलाफ विरोध हुआ है.

फिल्म में इस्लाम और पैगम्बर मोहम्मद साहब के बारे में अपमान जनक बाते दिखाई गई हैं. पहली क्लिप १३ मिनट की है. फिल्म की शुरुआत में दिखाया गया है की कुछ इजिप्टियन मुस्लिम इजिप्टियन क्रिस्चंस पर आक्रमण कर रहे है. आक्रमण से बचता हुआ एक डॉक्टर परिवार है जो की अपने ही घर में छिपा हुआ है. उस परिवार के डॉक्टर पुरुष पेन से बोर्ड पे MAN + X = BT लिखता है और BT को इस्लामिक आतंकवादी बताता है (जो की ओवर डब आवाज़ में सुनाइ देता है). उसके बाद वो BT - X = MAN लिखता है. महिला उससे पूछती है की ये X क्या है तो वो बोलता है की ये उससे खुद पता करा होगा.

इस फिल्म के २ ट्रेलर इन्टरनेट पे अपलोडेड हैं. सुना जा रहा है की पूरी मूवी २ घंटे की है. फिल्म के दूसरे ट्रेलर में मोहम्मद साहब के बाद के जीवन को दिखाया गया है. पूरी फिल्म में बार बार ओवर डब आवाजों में इस्लाम, मोहम्मद, कुर-आन शब्दों का प्रयोग किया गया है जो की फिल्म को अश्लील और आक्रामक बनाता है.

फिल्म का कुछ हिस्सा यू-ट्यूब पे अपलोड करने के बाद से विरोध शुरू हो गया था. यू-ट्यूब पर इस फिल्म का विडियो जुलाई २०१२ को अपलोड किया गया था, और इसका टाईटिल रखा गया 'द रियल लाइफ ऑफ मोहम्मद एंड मोहम्मद मूवी ट्रेलर'. इसके बाद विडियो को सितम्बर २०१२ में अरबी में डब किया गया. अरबी में इस फिल्म को अपलोड करने के बाद इसका प्रचार ईमेल और नेशनल अमेरिकन कोप्टिक असेम्बली के ब्लॉग के द्वारा किया गया. ८ सितम्बर २०१२ को इजिप्ट इस्लामिक टेलीविज़न अल-नस टीवी पे ये विडियो प्रसारित किया गया. ११ सितम्बर से इजिप्ट और लीबिया में और उसके बाद समस्त विश्व और खास कर के मुस्लिम देशो में इस फिल्म के खिलाफ प्रदर्शन शुरू हो गया.

माना जा रहा है की ११ सितम्बर २०१२ को अमेरिकन राजदूत जे. क्रिश्टोफ़र स्टीवेन और ३ अतिरिक्त अमेरिकन लोगों की मृत्यु का कारण यही विडियो है और ये एक सोची समझी साजिश के अंतर्गत किया गया.

एक सलाहकार के कहना है की इस फिल्म का पोस्टर टाइटिल ‘इन्नोसेंस ऑफ बिन लादेन’ था.इस फिल्म की एक्ट्रेस का कहना है की इस फिल्म का असली टाइटिल “डेज़र्ट वार्रियर” था और इसकी कहानी आदिवासी एरिया में एक धूमकेतु के आजाने पर आधारित थी. इस फिल्म की कहानी में कोई भी धार्मिक वस्तु नहीं थी और ये सब कुछ इसमें बिना किसी की सूचना के ओवर डबिंग से जोड़ा गया.

फिल्म की असली निर्माता ने फिल्म की ओवर डबिंग को पूरी तरह से नकारा है और खेद व्यक्त किया है की वो और उनकी टीम इसके पीछे १% भी नहीं है. “हम इस फिल्म की कठोर पुनर्लेखन से आहत हैं और हमें इस बात का सदमा है की इसकी वजेह से पूरी दुनिया में काफी कुछ बुरा हो रहा है”, ये कहना है फिल्म के कास्ट एवं क्रू मेम्बर्स का. Cindy Lee Garcia जिन्होंने इस मूवी में मोहम्मद की होने वाली वाली बीवी की माँ का किरदार निभाया है उनका कहना है की ये फिल्म सन २००० के इजिप्ट के जीवन को दर्शाती है जिसका नाम डेज़र्ट वार्रियर है और जिस किरदार का नाम मोहम्मद दर्शाया गया है उस किरदार का नाम मास्टर जोर्ज है.

WNYC's On the Media की प्रोडूसर सराह अब्दुर्रहमान ने ये ट्रेलर देखकर कहा की सच में सारे धार्मिक वाक्यांश फिल्म के शूट होने के बाद ओवरडब किये गए हैं.
पूरे विश्व के मीडिया ने अलग अलग तरह से फिल्म की आलोचना की है.
  • “फिल्म इतनी नृशंस है की इसमें कुछ भी देखने लायक नहीं है"- द न्यू रिपब्लिक
  • “एक अश्लील और क्रूर दिमाग की उपज"- न्युयोर्क डेली न्यूज़
  • “इस फिल्म का सीधा उद्देश्य पैगम्बर मोहम्मद की छवि को बिगाडना है"- मुस्लिम फिल्म मेकर कामरान पाशा
  • “अपमानजनक, अप्रिय, घृणित और कूड़ा फिल्म"- सलमान रश्दी
  • “इस्लाम विरोधी और क्रुद्दता फ़ैलाने की लिए बने गई फिल्म"- स्काई न्यूज़
  • “फिल्म दर्शाती है की मोहम्मद साहब एक बेवकूफ, वेहशी और ढोंगी थे"- रयूटर
  • “ट्रेलर के अनुसार मोहम्मद साहब एक लड़कीबाज़, समलैंगिक और चाइल्ड एब्युज़र थे.”- एन. बी. सी न्यूज़
  • “गधे के समय के संवाद समलैंगिता और कामुकता व्यक्त करते हैं"- टाइम मैग्जीन
  • “मोहम्मद साहब के अनुयायियों को महिलाओं एवं बच्चों के बर्बर हत्यारे एवं धन के भूखे दिखाया गया है.”- बी. बी. सी

काश हर मोहल्ले में ऐकू लाल होते


उच्चतम न्यायालय के फैसले से ऐकू लाल खुश

सुप्रीम कोर्ट का फैसला अकबर को गोद लिए पिता के लिए काफी राहत भरा रहा. अकबर सात साल पहले चाय की दुकान लगाने वाले ऐकू लाल को मिला था.

August 12, 2011
सुप्रीम कोर्ट के विचार के लिए एक अजीब मामला पेश किया गया है .अकबर नाम के एक बच्चे की कस्टडी का केस है . बच्चा मुसलमान माँ बाप का है . करीब सात साल पहले जब अकबर छः साल का था ,अपने पिता के साथ इलाहाबाद के एक शराबखाने पर गया था . बाप ने शराब पी और नशे में धुत्त हो गया . बच्चा भटक गया लेकिन बाप को पता ही नहीं चला कि बच्चा कहाँ गया . गुमशुदगी की कोई रिपोर्ट नहीं लिखाई गयी. लखनऊ के कैसर बाग़ में बच्चा चाय की एक दुकान के सामने गुमसुम हालत में पाया गया. चाय की दुकान के मालिक ऐकू लाल ने बच्चे को देखा और साथ रख लिया . बहुत कोशिश की कि बच्चे के माता पिता मिल जाएँ. मुकामी टी वी चैनलों पर इश्तिहार भी दिया लेकिन कहीं कोई नहीं मिला. जब कोई नहीं मिला जो बच्चे को अपना कह सके तो उसने बच्चे को स्कूल में दाखिल करवा दिया .

बच्चे का नाम वही रखा , धर्म नहीं बदला, स्कूल में बच्चे के माता पिता का वही नाम लिखवाया जो बच्चे ने बताया था. लेकिन ऐकू ने इस बच्चे को अपने जीवन का मकसद समझ कर तय किया कि वह शादी नहीं करेगा . उसे शक़ था कि उसकी होने वाली पत्नी कहीं बच्चे का अपमान न करे . तीन साल बाद अकबर के माँ बाप को पता चला कि वह ऐकू लाल के साथ है.उन्होंने बच्चे की कस्टडी की मांग की लेकिन ऐकू लाल ने मना कर दिया क्योंकि बच्चा ही उसे छोड़कर जाने को तैयार नहीं था .बच्चे के माँ बाप ने इलाहाबाद हाई कोर्ट में मुक़दमा कर दिया और बच्चे की कस्टडी की फ़रियाद की .उन्होंने ऐकू लाल पर आरोप लगाया कि उसने बच्चे को बंधुआ मजदूर की तरह रखा हुआ था . मामला २००७ में इलाहाबाद हाई कोर्ट में जस्टिस बरकत अली जैदी की अदालत में सुनवाई के लिए आया.

माननीय न्यायमूर्ति ने आदेश दिया कि बच्चे की इच्छा और केस की अजीबो गरीब हालत के मद्दे नज़र बच्चे को ऐकू लाल की कस्टडी में रखना ही ठीक होगा. बच्चे की माँ का वह तर्क भी हाई कोर्ट ने स्वीकार नहीं किया कि ऐकू लाल ने बच्चे को बंधुआ मजदूर की तरह रखा था. . बच्चे के स्कूल की मार्कशीट अच्छी थी और स्कूल में उसकी पढाई अव्वल दर्जे की थी.हालात पर गौर करने के बाद जस्टिस जैदी ने कहा कि अपना देश एक धर्मनिरपेक्ष देश है . जाति बिरादरी की बातों को न्याय के रास्ते में नहीं आने देना चाहिए . जब अंतर जातीय विवाह हो सकते हैं तो अंतर जातीय या अंतर-धर्म के बाप बेटे भी हो सकते हैं . बच्चा ऐकू लाल के पास ही रहेगा ,इसमें बच्चे की इच्छा के मद्दे नज़र उसके जैविक माता पिता की प्रार्थना को नकार कर बच्चे को ऐकू लाल के पास ही रहने दिया गया.

अब मामला सुप्रीम कोर्ट में है. जहां जस्टिस डी के जैन और एच एल दत्तु की बेंच में बुधवार को इस पर विचार हुआ .अदालत ने सवाल पूछा कि जब अकबर का बाप शराब की दुकान पर बच्चे को भूलकर घर चला आया था तो बच्चे की माँ ने उसके गायब होने की रिपोर्ट क्यों नहीं लिखवाई थी. बेंच ने कहा कि सबको मालूम् है कि कानून के हिसाब से इतनी कम उम्र के बच्चे की स्वाभाविक गार्जियन उसकी माँ होती है . हम तो तुरंत आदेश देकर मामले को निपटा सकते हैं.लेकिन बच्चे की मर्ज़ी महत्वपूर्ण है . वह उस आदमी को छोड़कर नहीं जाना चाहता जिसने अब तक उसका पालन पोषण किया है .

सुप्रीम कोर्ट ने बच्चे की माँ शहनाज़ के वकील से कहा कि उसकी आमदनी के बारे में एक हलफनामा दाखिल करें .लेकिन इसके पहले बेंच ने शहनाज़ के वकील से जानना चाहा कि वे क्यों ऐसा आदेश करें जिससे बच्चा उस आदमी से दूर हो जाए जिसने उसकी सात साल तक अच्छी तरह से देखभाल की है . ऐकू लाल की भावनाओं को बेंच ने नोटिस किया और कहा कि उसने बच्चे का नाम तक नहीं बदला , उसके माँ बाप का नाम वही रखा , बच्चे के माँ बाप को तलाशने के लिए विज्ञापन तक दिया.यह वही माँ बाप हैं जिन्होंने अकबर के गायब होने के बाद रिपोर्ट तक नहीं लिखाया था. बहर हाल मामला देश की सर्वोच्च अदालत की नज़र में है और इस पर अगली सुनवाई के वक़्त फैसला हो पायेगा.लेकिन ऐकू लाल की तरह के लोग हे एवाह लोग हैं जिन पर हिंद को नाज़ है

इस किस्से का क्राइम पेट्रोल संस्करण देखने के लिए यहाँ क्लिक करे-
http://thrill-suspense.blogspot.in/2011/12/crime-patrol-episode-69.html

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जब मुझे सत्य का ज्ञान हुआ


कई  साल पहले दैनिक जागरण में श्री बलराज मधोक का लेख 'दंगे क्यूँ होते हैं?' पढ़ा. इस लेख में हिन्दू-मुस्लिम दंगा होने का कारण कुरआन मजीद में काफिरों से लड़ने के लिए अल्लाह के फरमान बताये गए थे. लेख में कुरआन मजीद की वे आयतें भी दी गई थीं.

इसके बाद दिल्ली से प्रकाशित एक पम्फलेट 'कुरआन की चौबीस आयतें, जो अन्य धर्मावलम्बियों को झगडा करने का आदेश देती हैं.' किसी व्यक्ति ने मुझे दिया. इसे पढने के बाद मेरे मनन में जिज्ञासा हुई की मई कुरआन पढू. इस्लामी पुस्तकों के दूकान में कुरआन का हिंदी अनुवाद मुझे मिला. कुआं मजीद के इस हिंदी अनुवाद में वे सभी आयतें मिलीं जो, पम्फलेट में लिखीं थीं. इससे मेरे मन  में यह गलत धारणा बनी की इतिहास में हिन्दू राजाओ व मुस्लिम बादशाहों के बीच जुंग में हुई मार-काट तथा आज के दंगों और आतंकवाद का कारण इस्लाम है. दिमाग भ्रमित हो चुका था. इस भ्रमित दिमाग से हर आतंकवादी घटना मुझे इस्लाम से जुडती दिखाई देने लगी.

इस्लाम, इतिहास और आज की घटनाओं को जोड़ते हुए मैंने एक पुस्तक लिख डाली 'इस्लामिक आतंकवाद का इतिहास' जिसका अंग्रेजी अनुवाद 'The History Of Islamic Terrorism' के नाम से सुदर्शन प्रकाशन, सीता कुञ्ज, लिबर्टी गार्डेन, रोड नंबर ३, मलाड (पश्चिम) मुंबई ४०००६४ से प्रकाशित हुआ.

मैंने हाल में इस्लाम धर्म के विद्वानों (उलमा) के बयानों को पढ़ा की इस्लाम का आतंकवाद से कोई सम्बन्ध नहीं है. इस्लाम प्रेम सद्भावना व भाईचारे का धर्म है. किसी बेगुनाह को मारना इस्लाम के विरुद्ध है. आतंकवाद के खिलाफ फतवा भी ज़ारी हुआ.

इसके बाद मैंने कुरआन मजीद में जिहाद के लिए आई आयातों के बारे में भी जान्ने के लिए मुस्लिम विद्वानों से संपर्क किया, जिन्होंने मुझे बताया की कुरआन मजीद की आयतें भिन्न-भिन्न तत्कालीन परिस्थितियों में उतरी. इसलिए कुरआन मजीद का केवल अनुवाद ही न देख कर यह भी जानना ज़रूरी है की कौनसी आयत किस परिस्थिति में उतरी तभी उसको सही मतलब और मकसद पता चल पायेगा.

साथ ही धायं देने योग्य है की कुरआन इस्लाम के पैगम्बर मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलेही व सल्लम) की जीवनी से परिचित होना भी ज़रूरी है.

विद्वानों ने मुझसे कहा- "आपने कुरआन मजीद की जिन आयातों का अनुवाद अपनी किताब में हिंदी में किया है, वे आयतें अत्याचारी क़ाफ़िर मुशरिक लोगों के लिए उतारी गई है जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से लड़ाई करते और मुल्क में फसाद करने के लिए दौड़े फिरते हैं. सत्य धर्म की राह में रोड़ा डालने वाले ऐसे लोगों के विरुद्ध ही कुरआन में जिहाद का फरमान है."

उन्होंने मुझे कहा की इस्लाम की सही जानकारी न होने के कारण लोग कुरआन मजीद की पवित्र आयातों का मतलब नहीं समझ पाते . आदि आपने पूरी कुरआन मजीद के साथ हज़रात मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलेही व सल्लम) की जीवनी पढ़ी होती, तो आप भ्रमित न होते.

मुस्लिम विद्वानों के सुझाव के अनुसार मैंने सबसे पहले पैगम्बर हजरत मुहम्मद की जीवनी पढ़ी. जीवनी पढने के बाद इसी नज़रिए से जब मन की अशुद्धता के साथ कुरआन मजीद शुरू से अंत तक पढ़ी, तो मुझे कुरआन मजीद की आयातों का सही मतलब समझ आने लगा.

सत्य सामने आने के बाद मुझे अपनी भूल का एह्साह हुआ की अनजाने में भ्रमित था और इसी कारण ही मैंने अपनी उक्त किताब 'इस्लामिक आतंकवाद का इतिहास' में आतंकवाद को इस्लाम से जोड़ा है जिसका मुझे हार्दिक खेद है.

मै अल्लाह से, पैगम्बर मोहम्मद (सल्ल०) से और सभी मुस्लिम भाइयों से सार्वजनिक रूप से माफ़ी मांगता हूँ तथा अगानता में लिखे व बोले शब्दों को वापस लेता हूँ. सभी जनता से मेरी अपील है की 'इस्लामिक आतंकवाद का इतिहास' पुस्तक में मैंने जो कुछ लिखा है उससे शून्य समझे.


स्वामी लक्ष्मीशंकराचार्य
ए-१६०१, आवास विकास कालोनी,
हंस्पुरम, नौबस्ता कानपुर- २०८०२१
e-mail: laxmishankaracharya@yahoo.com

About The Author (जीवन परिचय)


श्री स्वामी लक्ष्मीशंकर का जन्म सन १९५३ में एक ब्रह्मिन परिवार में हुआ. आपके पिटा स्व० सीतापरम त्रिपाठी व माता श्रीमती कौशल्या देवी पेशे से अध्यापक थे. आपकी शिक्षा-दीक्षा कानपूर और अल्लाहाबाद में हुई. शिक्षा प्राप्त करने के बाद ठेकेदारी के पेशो से जुड़ गए. लेकिन कुछ समय बाद ही बोतिकता को त्याद कर अध्यात्मा की ओर मुड़ गए.

इस बीच इस्लाम के बारे में किये जा रहे दुष्प्रचार से प्रभावित होकर आपने एक पुस्तक 'इस्लामिक आतंकवाद का इतिहास' लिखी जिसका अंग्रेजी अनुवाद 'The History Of Islamic Terrorism' के नाम से मुंबई से प्रकाशित हुआ, लेकिन बाद में सत्य का ज्ञान होने पर अपनी पहली पुस्तक के लिए खेद व्यक्त करते हुए एस पुस्तक 'इस्लाम, आतंक? या आदर्श' लिखी.

भाग १.१


शुरुआत कुछ इस तरेह हुई की भारत सहित दुनिया में यदि कहीं विस्फोट हो या किसी व्यक्तियों की ह्त्या हो और उस घटना में संयोगवश मुसलमान शामिल हों तो उसे इस्लामिक आतंकवाद कहा गया.

थोड़े ही समय में ही मीडिया सहित कुछ लोगों ने अपने-अपने निजी फायेदे के लिए इसे सुनियोजिज़ तरीके से इस्लामिक आतंकवाद की परिभाषा में बदल दिया. इसे सुनियोजित प्रचार का परिणाम यह हुआ की आज कहीं भी विस्फोट हो जाए उसे तुरंत इस्लामिक आतंकवादी घटना मानकर ही चला जाता है.

इसी माहोल में पूरी दुनिया में जनता के बीच मीडिया के माध्यम से और पश्चिमी दुनिया सहित कई अलग अलग देशों में अलग अलग भाषाओं में सैकड़ो किताबे लिख लिख कर ये प्रचारित किया गया की दुनिया में आतंकवाद की जड़ सिर्फ इस्लाम है.

इस दुष्प्रचार में यह प्रमाणित किया गया की कुरआन में अल्लाह की आयतें मुसलमानों को ये आदेश देती हैं की - वे, अन्य धर्म मानने वाले काफिरों से लादेन उनकी बेरहमी के साथ ह्त्या करें या उन्हें आतंकित कर ज़बरदस्ती मुसलमान बनाएं, उनके पूजास्थलों को नष्ट करें - यह जिहाद है और जिहाद करने वाले को अल्लाह जन्नत देगा. इस तरेह योजनाबद्ध तरीके से इस्लाम को बदनाम करने के लिए उसे निर्दोषों की ह्त्या कराने वाला आतंकवादी धर्म घोषित कर दिया गया और जिहाद का मतलब आतंकवाद बताया गया.

सच्चाई क्या है? यह जानने के लिए हम वही तरीका अपनाएंगे जिस तरीके से हमें सच्चाई का ज्ञान हुआ था. मेरे द्वारा शुद्ध मन से किये गए इस पवित्र प्रयास में यदि अनजाने में कोई गलती हो गई हो तो उसके लिए पाठक मुझे क्षमा करेंगे.

इस्लाम के बारे में कुछ भी प्रमाणित करने के लिए यहाँ हम ३ कसौटियां लेंगे-

  1. कुरआन मजीद में अलाह के आदेश
  2. पैगम्बर मोहम्मद(सल्लल्लाहु अलेही व सल्लम) के जीवनी
  3. हज़रात मुहम्मद(सल्लल्लाहु अलेही व सल्लम) की कथनी यानी हदीस.

इन तीनो कसौटियों से अब हम देखते हैं की:

  • [क्या वास्तव में इस्लाम निर्दोशो को लड़ने और उनकी ह्त्या करने व हिंसा फैलाने का आदेश देता है?
  • [क्या वास्तव में इस्लाम लोगों को ज़बरदस्ती मुसलमान बनाने का आदेश देता है?
  • [क्या वास्तव में हमला करने, निर्दोषों की ह्त्या करने व आतंक फैलाने का नाम ही जिहाद है?
  • [क्या वास्तव में इस्लाम एक आतंकवादी धर्म है?

सर्वप्रथम एस बताना आवश्यक है की हज्तर मोहम्मद (सल्ल०) अलाह के महत्वपूर्ण व अंतिम पैगम्बर है. अलाह ने आसमान से कुरआन आप पर ही उतारा. अलाह का रसूल होने के बाद से जीवन पर्यंत २३ सालो से आप (सल्ल०) ने जो किया, वह कुरआन के अनुसार ही किया.

दुसरे शब्दों में हज़रात मोहम्मद (सल्ल०) के जीवन के यह २३ साल कुरआन या इस्लाम का व्यावहारिक रूप हैं. आतः कुरआन या इस्लाम को जानने का सबसे महत्वपूर्ण और आसान तरीका हज़रात मुहम्मद (सल्ल०) की पवित्र जीवनी है, यह मेरा स्वयं का अनुभव है. आपकी जीवनी और कुरआन मजीद पढ़कर पाठक स्वयं निर्णय कर सकते हैं की इस्लाम एक आतंक है? या आदर्श.

भाग १.२


उलमा-ए-सीयर (यानी की पवित्र जीवनी लिखने वाले विद्वान्) लिखते हैं की- पगाम्बर मोहम्मद सल्लल्लाहु अलेही व सल्लम का जन्म मक्का के कुरैश कबीले के सरदार अब्दुल मुत्तलिब के बेटे अब्दुलाह के घर सन ५७० ई० में हुआ. मुहम्मद (सल्ल०) के जन्म से पहले ही उनके पिटा अब्दुल्लाह का निधन होगया था. ८ साल की उम्र में दादा अब्दुल मुत्तलिब का भी देहांत होगया तो चाचा अबू-तालिब के संरक्षण में आप (सल्ल०) पले-बढे.

२५ वर्ष की आयु में आप (सल्ल०) का विवाह खजीदा से हुआ. खजीदा मका के एक बहुत ही समृद्धशाली व सम्मानित परिवार की विधवा महिला थीं.

उस समय मक्का के लोग काबा की ३६० मूर्तियों की उपासना करते थे. मक्का में मूर्ती पूजा का प्रचालन शाम (सीरिया) से आया. वहाँ सबसे पहले जो मूर्ती स्थापित की गई वह 'हबल' नाम के देवता की थी, जो सीरिया से लाइ गयी थे. इसके बाद 'इसाफ' और 'नैला' की मूर्तियाँ ज़मज़म नाम के कुएं पर स्थापित की गयीं. फिर हर कबीले ने अपनी-अपनी अलग-अलग मूर्तियाँ स्थापित कीं. जैसे कुरिल कबीले ने 'उज्जा' की, तैफ के कबीले ने 'लात' की. मदीने के औस और ख्ज्राज़ कबीलों ने 'मनात' की. ऐसे ही वाद, सुवास, यागुस, सूफ, नासर आदि प्रमुख मूर्तियाँ थी. इसके अलावा हजरत इब्राहीम, हजरत इस्माइल, हजरत ईसा आदि की तस्वीरें व मूर्तियाँ खाना काबा में मोजूद थीं.

ऐसी परिस्थितियों में ४० वर्ष की आयु में आप (सल्ल०) को प्रथम बार रमजान के महीने में मक्का से ६ मील की दूरी पर 'गारे हीरा' नामक गुफा में एक फ़रिश्ता जिब्रील से अल्लाह का सन्देश प्राप्त हुआ. इसके बाद अल्लाह के रसूल हजरत मुहम्मद (सल्ल०) को समय समय पर अल्लाह के आदेश मिलते रहे. अल्लाह के यही आदेश, कुरआन हैं.

आप (सल्ल०) लोगों को अल्लाह के पैगाम देने लगे की 'अल्लाह एक है उसका कोई शरीक हैं. केवल वही पूजा के योग्य है. सब लोग उसी की इबादत करो. अल्लाह ने मुझे नबी बनाया है. मुझ पर अपनी आयतें उतारी हैं ताकि मई लोगों को सत्य बताऊ, सीढ़ी सत्य की राह दिखाऊ' जो लोग मुहम्मद (सल्ल०) के इस पैगाम पर ईमान (यानी विश्वास) लाये, वे मुस्लिम अर्थात मुसलमान कहलाये.

बीवी खदीजा(रजि०) आप पर विश्वास लाकर पहली मुसलमान बनी. उसके बाद चचा अबू-तालिब के बेटे अली (रजि०) और मुह बोले बेटे ज़ैद व आप (सल्ल०) के गहरे दोस्त (रजि०) ने मुसलमान बनने के लिए "अशहदु अल्ला इलाह इल्लाल्लाहू व अशहदु अन्न मुहम्मादुर्र्रासूलाल्लाह" यानी "मई गवाही देता हूँ, अल्लाह के रसूल हैं." कह कर इस्लाम कबूल किया.
मक्का के अन्य लोग भी ईमान ( विश्वास) लाकर मुसलमान बनने लगे. कुछ समय बाद ही कुरैश के सरदारों को मालूम हो गया की आप (सल्ल०) अपने बाप-दादा के धर्म बहुदेववाद और मूर्तिपूजा के स्थान पर किसी नए धर्म का प्रचार कर रहे हैं और बाप-दादा के दीं को समाप्त कर रहे हैं. यह जानकार आप (सल्ल०) के अपने ही कबीले कुरे=ऐश के लोग बहुत क्रोधित हो गए. मक्का के सारे बहुइश्वर्वादि काफिर सरदार इकट्ठे होकर मुहम्मद (सल्ल०) की शिकायत लेकर आप के चचा अबू तालिब के पास गए. अबू तालिब ने मुहम्मद (सल्ल०) को बुलवाया और कहा- "मुहम्मद ये अपने कुरैश कबीले के असरदार सरदार हैं, और ये चाहते हैं की तुम यह प्रचार न करो की अल्लाह के सिवा कोई पूज्य नहीं है और अपने बाप-दादा के धर्म पर कायम रहो."

मुहम्मद (सल्ल०) ने 'ला इल-ह इल्लल्लाह' (अल्लाह के अलावा कोई पूज्य नहीं है) इस सत्य का प्रचार छोड़ने से इनकार कर दिया. कुरैश सरदार क्रोधित होकर चले गए.

इसके बाद कुरैश सरदारों ने ये तय किया की अब हम मुहम्मद को हर प्रकार से कुचल देंगे. वे मुहम्मद (सल्ल०) और साथियों को बेरहमी से तरह-तरह से सताते, अपमानित करते और उन पर पत्थर बरसाते.

इसके बाद भी आप (सल्ल०) ने उनकी दुष्टता का जवाब सदैव सज्जनता और सद्व्यवहार से ही दिया.

'सल्ल०' का पूर्णरूप है- 'सल्लल्लाहु अलेही व सल्लम'. जिसका अर्थ है- 'अल्लाह उन पर रहमत और सलामती की बारिश करे'.
हजरत मुहम्मद (सल्ल०) का नाम लेते या पढ़ते समय आदर देने के लिए इसका प्रयोग किया जाता है.


'रजि०' का पूर्ण रूप है- 'राज़ियाल्लाहू अन्हु', जिसका अर्थ है- ' अल्लाह उन से राज़ी हो' इस आदर सूचक शब्द का प्रयोग सहाबी* के नाम के साथ होता है.
* सहाबी उस मुसलमान को कहते हैं जिसे पैगम्बर हजरत मुहम्मद (सल्ल०) से मिलने का औभाग्य प्राप्त हुआ हो.
सहाबी का बहुवचन सहाबा होता है और स्त्रीलिंग सहाबिय:. सहबिय: के नाम के साथ रजि० को राजियाल्लाहू अन्हां पढ़ा जता है.

भाग १.३


मुहम्मद (सल्ल०) व आपके साथी मुसल्मोअनो के विरोध में कुरैश का साथ देने के लिए अरब के और बहुत से कबीले थे जिन्होंने आपस में यह समझोता कर लिया था की कोई कबीला किसी मुसलमान को पनाह नहीं देगा. प्रत्येक कबीले की ज़िम्मेदारी थी, जहाँ कहीं मुसलमान मिल जाए उनको खूब मारें-पीतें और हर तरेह से अपमानित करें, जिससे वे अपने बाप-दादा के धर्म की ओर लौट आने को मजबूर हो जाएँ.

दिन प्रतिदिन उनके अत्याचार बढ़ते गए. उन्होंने असहाय मुसलमानों को कैद किया, मारा-पीता, भूखा प्यासा रखा. मक्के की तपती रेट पर नंगा लिटाया, लोहे की गर्म छड़ों से दागा और तरेह-तरेह के अत्याचार लिए.

उदाहरण के लिए हज़रात यासिर(रजि०) और उनकी बीवी हज़रात सुम्य्या (रजि०) तथा उनके पुत्र हज़रात अम्मार (रजि०) मक्के के गरीब लोग थे और इस्लाम कबूल कर मुसलमान बन गए थे. उनके मुसलमान बन्ने से नाराज़ मक्के के काफिर उन्हें सज़ा देने के लिए जब कड़ी दोपहर हो जाती, तो उनके कपडे उता उन्हें तपती रेट पे लिटा देते.

हज़रात यासिर(रजि०) ने इन ज़ुल्मो को सहेते हुए तड़प-तड़प कर जान देदी. मुहम्मद (सल्ल०) व मुसलमानों का सबसे बड़ा विरोधी अबू जहल बड़ी बेदर्दी से हज़रात सुम्य्या (रजि०) के पीछे पडा रहता था . एक दिन उन्होंने अबू-ज़हेल को बद्दुआ देदी जिससे नाराज़ होकर अबू-जहेल ने भाला मार कर हज़रात सुम्य्या (रजि०) का क़त्ल करदिया. इस तरेह इस्लाम में हज़रात सुम्य्या(रजि०) ही सबसे पहले सत्य की रक्षा के लिए शहीद बनी.

दुष्ट कुरैश, हज़रात अम्मार (रजि०) को लोहे का कवच पहना लार धुप में लिटा देते. तपती हुई रेट पर लिटाने के बाद मारते-मारते बेहोश कर देते.
इस्लाम कबूल कर मुस्लमान बने हज़रात बिलाल (रजि०), कुरैश सरदार उमय्या के गुलाम थे. उमेय्या ने ये जानकार की बिलाल मुसलमान बन गए हैं, उनका खानापीना बंद करदिया. ठीक दोपहर में भूखे-प्यासे ही वह उन्हें बाहर पत्थर पर लिटा देता और छाती पर बहुत भारी पत्तःर रखवा कर कहता - "लो, मुसलमान बन्ने का मज़ा चखो."

उस समय जितने भी गुलाम मुस्लमान बन गए थे उन सभी पर इसी तरह के अत्यचार हो रहे थे. हज़रात मुहम्मद (सल्ल०) के जिगरी दोस्त हज़रात अबू-बक्र (रजि०) ने उन सब को खरीद-खरीद कर गुलामी से आज़ाद कर दिया.

काफ़िर कुरैश यदि किसी को कुरआन की आयते पढ़ते सुन लेते या नमाज़ पढ़ते देख लेते, तो पहले उनकी बहुत हसी उड़ाते फिर उसे बहुत सताते. इस डर के कारण मुसलमानों को नमाज़ पढनी होती तो छिपकर पढ़ते और कुरआन पढना होता तो धीमी आवाज़ में पढ़ते.

एक दिन कुरैश काबा में बैठे हुए थे. अब्दुल्लाह-बिन-मसूद (रजि०) काबा के पास नमाज़ पढने लगे, तो वहां बैठे सारे काफिर कुरैश उन पर टूट पड़े और उन्हें अब्दुल्लाह को मारते-मारते बे दम कर दिया.

जब मक्का में काफिरों के अत्याचार के कारण मुआल्मानो का जीना मुश्किल हो गया तो मुहम्मद (सल्ल०) ने उनसे कहा: "हबशा चले जाओ"

हबशा का बादशाह नज्ज़शी इसाई था. अल्लाह के रसूल का हुक्म पाते ही बहुत से मुसलमान हबशा चले गए. जब कुरैश को पता चाल तो उन्होंने अपने २ आदमियों को दूत बना कर हबशा के बादशाह के पास भेज कर कहलाया की "हमारे यहाँ के कुछ मुजरिमों ने भागकर आपके यहाँ शरण ली है. इन्होने हमारे धर्म से बगावत की है और आपका इसाई धर्म भी नहीं स्वीकार है, फिर भी अओके यहाँ रह रहे हैं. ये अपने बाप-दादा के धर्म से बगावत करके एक ऐसा धर्म लेकर चले हैं जिसे न हम जानते हैं और न आप. ये हमारे मुजरिम हैं, इनको लेने के लिए हम आये हैं."

बादशाह नज्ज़शी ने मुसलमानों से पूछा: 'तुम लोग कौनसा ऐसा नया धर्म लेकर चल रहे हो, जिसे हम नहीं जानते?"

इसपर मुसलमानों की और से हज़रात जाफर (रजि०) बोले- हे बादशाह! पहले हम लोग असभ्य और गवार थे, बुतों की पूजा करते थे, गंदे काम करते थे, पड़ोसियों से व आपस में झगडा करते रहते थे. इस बीच अल्लाह ने हमें अपना एक रसूल भेजा. उसने हमें सत्य-धर्म इस्लाम की और बुलाया. उसने हमें अलाह का ओईगाम देते हुए कहा: "हम केवल एक इश्वर की पूजा करे, बेजान बुतों की पूजा छोड़ दे, सत्य बोले और पड़ोसियों के साथ अच्छा व्यवहार करे, किसी के साथ अत्याचार और अन्याय न करें. व्यभिचार और गंदे कार्यों को छोड़ दें, अनाथों और कमजोरों का माल न खाएं, पाक दामन औरतों पर तोहमत न लगाएं, नमाज़ पढ़े और खैरात यानी की दान दे."

भाग १.४


हमने उस पैगाम को व उस को अच्चा जाना और उस पर ईमान यानी की विश्वास लाकर मुस्लमान बन गए.

हज़रात जाफर (रजि०) के जवाब से बादशाह नज्ज़शी बहुत प्रभावित हुआ. उसने दूतों को यह कह कर वापस करदिया की ये लोग अब यहीं रहेंगे.

मक्का में खत्ताब के पुत्र उम्र बड़े ही क्रोधी किन्तु बड़े बहादुर साहसी योद्धा थे. अल्लाह के रसूल (सल्ल०)ने अलाह से प्रार्थना की कि यदि उम्र ईमान लाकर मुसलमान बन जाएँ तो इस्लाम को बड़ी ही मदद मिले, लेकिन उम्र मुसलमानों के लिए बड़े ही निर्दयी थे. जब उन्हें ये मल्लों हुआ कि नज्ज़शी ने मुसलमानों को अपने यहाँ शरण दे दी है तो वह बहुत क्रोधित हुए. उम्र ने सोचा सारे फसाद कि जड़ मोहम्मद ही है, अब न उसे ही मार कर फसाद कि जड़ ही समाप्त कर दूंगा.

ऐसा सोच कर, उम्र तलवार उठा कर चल दिए. रास्ते में उनकी भेंट नुईम-बिन-अब्दुल्लाह से होगी जो पहले ही मुसलमान बन चुके थे, लेकिन उम्र को यह पता नहीं था. बातचीत में जब नुएम को पता चला कि उम्र, अल्लाह से रसूल (रजि०) का क़त्ल करने जा रहा है तो उन्होंने उम्र के इरादे का रुख बदलने को कहा: "तुम्हारी बाहें-बहेनोई मुसलमान हो गए हैं, पहले उनसे निबटो."

यह सुनते ही कि उनकी बाहें और बहनोई और मुहम्मद का दीं इस्लाम कबूल कर मुसलमान बन चुके हैं, उम्र गुस्से से पागल हो गए और सीधा बाहें के घर जा पहुचे.

भीतर से कुछ पढने कि आवाज़ आरही थी. उस समय खाब्बाब(रजि०) कुरआन पढ़ रहे थे. उम्र कि आवाज़ सुनते ही वे डर के आरे अन्दर छिप गए. कुरआन के जिन पन्नो को वो पढ़ रहे थे, उम्र कि बहिन फातिमा(रजि०) ने उन्हें छिपा दिया, फिर बहनोई सईद (रजि०) ने दरवाज़ा खोला.

उम्र ने ये कहते हुए कि, "क्या तुम लोग सोचते हो कि तुम्हारे मुसलमान बन ने कि मुझे खबर नहीं है?" ये कहते हुए उम्र ने बहन-बहेनोई को मारना पीटना शुरू कर दिया और इतना मारा कि बहन का सर फट गया. किन्तु इतना मार खाने के बाद भी बाहें ने इस्लाम छोड़ने से इनकार कर दिया.

बहन के इस दृढ संकल्प ने उम्र के इरादे को हिला कर रख दिया. उन्होंने अपनी बाहें से कुरआन के पन्ने पन्ने दिखाने को कहा. कुरआन के उन् पन्नो को पढने के बाद उम्र का मन भी बदल गया. अब वह मुसलमान बन ने का इरादा कर मुहम्मद (सल्ल०) से मिलने के लिए चल दिए.
उम्र ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से विनम्रता पूर्वक कहा: "मै इस्लाम स्वीकार करने आया हूँ. मई गवाही देता हूँ कि अल्लाह के अलावा कोई पूज्य नहीं है और मुहम्मद(सल्ल०) अल्लाह के रसूल हैं. अब मई मुसलमान हूँ."

इस तरहे से मुसलमानों कि संख्या निरंतर बढ़ रही थी. इसे रोकने के लिए कुरैश ने आपस में समझोता किया. इस समझोते के अनुसार कुरैश के सरदार आप(सल्ल०) के परिवार मुत्तलिब खानदान के पास गए और कहा: "मुहम्मद को हमारे हवाले करदो. हम उसे क़त्ल कर देंगे और इस खून के बदले हम तुमको बहुत सा धन देंगे. यदि एसा नहीं करोगे तो हम सब घेराव करके तुम लोगों को नज़रबंद रखेंगे. न तुमसे कभी कुछ खरीदेंगे, न बेचेंगे और न ही किसी प्रकार का लेनदेन केंगे. तुम सब भूख से तड़प-तड़प कर मर जाओगे."

लेकिन मुत्तलिब खानदान ने मुहम्मद (सल्ल०) को देने से इनकार करदिया, जिसके कारण मुहम्मद (सल्ल०) अपने चाचा अबू-तालिब और समूचे खानदान के साथ एक घाटी में नज़रबंद कर दिए गए. भूख के कारण उन्हें पत्ते तक खाना पड़ा. ऐसे कठिन समय में मुसलमानों के कुछ हमदर्दों के प्रयास से यह नज़रबंदी समाप्त हुई.

इसके कुछ दिनों बाद चाचा अबू तालिब चल बसे. थोड़े ही दिनों के बाद खादिजा(रजि०) भी नहीं रहीं.

मक्का के काफिरों ने बहुत कोशिश कि कि मुहम्मद (सल्ल०) अल्लाह का पैगाम पहुचना छोड़ दे. चाचा अबू-तालिब कि मौत के बाद उन काफ़िरो के हौसले और बढ़ गए. एक दिन आप (सल्ल०) काबा में नमाज़ पढ़ रहे थे कि किसी ने ओझडी (गंदगी) लाकर आपके ऊपर दाल दी, लेकिन आप ने न कुछ बुरा-भला कहा और न कोई बद्दुआ दी.

इसी प्रकार एक बार आप(सल्ल०) कहीं जा रहे थे, रास्ते में किसी ने आप के सर पर इत्ती दाल दी. आप घर वापस लौट आये. पिटा पर लगातार हो रहे अत्याचारों को सोच कर बेटी फातिमा आप का सर धोते हुए रोने लगी. आप (सल्ल०) ने बेटी को तसल्ली देते हुए कहा: "बेटी रो मत! अल्लाह तुम्हारे बाप कि मदद करेगा."

मुहम्मद (सल्ल०) जब कुरैश के ज़ुल्मो से तंग आ गए और उनकी ज्यादतियां असहनीय हो गयीं, तो आप(सल्ल०) ताइफ़* चले गए, लेकिन यहाँ किसी ने आप को ठहराना तक पसंद नहीं किया. अल्लाह के पैगाम को झूठा कह कर आपको अल्लाह का रसूल मानने से इनकार कर दिया.

सकीफ कबीले के सरदार ने तैफ के गुंडों को आप के पीछे लगा दिया, उन्होंने पत्थर मार मार कर आप को बुरी तरेह से ज़ख़्मी कर दिया. किसी तरेह आप ने अंगूर के एक बाग़ में छिप कर अपनी जान बचाई.

*ताइफ़ एक नखलिस्तान(रेगिस्तान के उपजाऊ भाग को नखलिस्तान कहते हैं) था जहाँ मक्का के अमीर कुरैश सरदारों के अंगूर के बाग़, खेती और महेल थे जिनकी देखभाल वहां का सफीक नाम का कबीला करता था.

भाग १.५

मक्के में कुरैश को जब ताइफ़ का सारा हाल मालूम हुआ तो वे बड़े खुश हुए और आप की खूब हंसी उड़ाई. उन्होंने आपस में तय कर लिया की मुहम्मद अगर वापस लौट कर मक्का आये तो उनका क़त्ल कर देंगे.

आप(सल्ल०) ताइफ़ से मक्का के लिए रवाना हुए. हीरा नामक स्थान पर पहुचे तो वहां पर कुरैश के कुछ लोग मिल गए. ये लोग आप(सल्ल०) के हमदर्द थे. उनसे मालूम हुआ कि कुरैश आप का क़त्ल करने को तैयार बैठे हैं.

अल्लाह के रसूल अपनी बीवी खदीजा के एक रिश्तेदार अदि के बेटे मूतइम की पनाह में मक्का दाखिल हुए. चूंकि मूतइम आपको पनाह दे चके थे, इसलिए कोइ कुछ बोला लेकिन आप(सल्ल०) जब काबा पहुचे, तो अबू-जाहल ने आप की हंसी उड़ाई.

आपने लगातार अबू-ज़हल के दुर्व्यवहार को देखते हुए पहली बार उसे सख्त चेतावनी दी और साथ ही कुरैश सरदारों को भी अंजाम भुगतने को तैयार रहने को कहा.

इसके बाद अल्लाह के रसूल(सल्ल०) ने अरब के अन्य कबीलों को इस्लाम कि और बुलाना शुरू करदिया. इससे मदीना में इस्लाम फैलने लगा.

मदीना वासियों ने अल्लाह के रसूल की बातों पर ईमान (विश्वास) लाने के साथ आप(सल्ल०) कि सुरक्षा करने कि भी प्रतिज्ञा कि. मदीना वालों ने आपस में तय कर लिया कि इसबार जब हज करने मक्का जायेंगे, तो अपने प्यारे रसूल(सल्ल०) को मदीना आने का निमंत्रण देंगे.

जब हज का समय आया तो मदीने से मुसलमानों और गैर मुसलमानों का एक बड़ा काफिला हज करने के लिए मक्का के लिए चला. मदीना के मुसलमानों कि आप(सल्ल०) से काबा में मुलाकात हुई. इनमे से ७५ लोगों ने जिनमे से २ औरतें भी थीं पहले से तय कि हुई जगह पर रात में फिर अल्लाह के रसूल से मुलाक़ात कि. अलाह के रसूल (सल्ल०) से बातचीत करने के बाद मदीना वालों ने सत्य कि और सत्य को बताने वाले अल्लाह से रसूल(सल्ल०) कि रक्षा करने कि बैयत(प्रतिजा) ली.

रात में हुई प्रतिजा कि पूरी खबर कुरैश को मिल गई थी. सुबह कुरैश को जब पता चल कि मदीना वाले निकल गए तो उन्होंने उनका पीछा किया पर वे पकड़ में न आये. लेकिन उनमे से एक व्यक्ति सअद (रजि०) पकड़ लिए गए. कुरैश उन्हें मारते पीटते बाल पकड़ कर घसीटते  हुए मक्का लाये.

मक्का में मुसलमानों के लिए कुरैश के अत्याचार असहनीय हो चुके थे. इससे आप(सल्ल०) ने मुसलमानों को मदीना चले जाने (हिजरत)  के लिए कहा और हिदायत दी कि एक एक, दो दो करके निकालो ताकि कुरैश तुम्हारा इरादा भांप सकें. मुसलमान चोरी चोरी-छिपे मदीने कि और जाने लगें. अधिकाँश मुसलमान निकल गयेलेकिन कुछ कुरैश कि पकड़ में आगये और कैद कर लिए गए. उन्हें बड़ी बेरहमी से सताया गया ताकि वे मुहम्मद(सल्ल०) के बताये धर्म को छोड़ कर अपने बाप-दादा के धर्म में लौट आयें.

अब मक्का में इन बंदी मुसलमानों के अलावा अल्लाह के रसूल (सल्ल०), अबू-बक्र (रजि०) और अली(रजि०) ही बचे थे, जिन पर काफिर कुरैश घात लगाए बैठे थे.

मदीना के लिए मुसलमानों कि हिजरत से यह हुआ कि मदीना में इस्लाम का प्रचार-प्रसार शुरू हो गया. लोग तेज़ी से मुसलमान बन्ने लगे.

मुसलमानों का जोर बढ़ने लगा. मदीना में मुसलमानों किबध्ती ताकत देख कर कुरैश चिंतिति हुए. अतः एक दिन कुरैश अपने मंत्रणा गृह 'दारुन्दावा' में जमा हुए. यहाँ सब ऐसी तरकीब सोचने लगे जिससे मुहमद का खात्मा हो जाए और इस्लाम का प्रवाह रुक जाए. अबू-ज़हल के प्रस्ताव पर सब कि राय से तय हुआ कि प्रत्येक कबीले से एक-एक व्यक्ति को लेकर एक साथ मुहम्मद पर हमला बोलकर उनकी कि ह्त्या कर दी जाए.  इससे मुहम्मद के परिवार वाले तमाम सम्मिलित कबीलों का मुकाबला नहीं कर पायेंगे और समझोता करने को मजबूर हो जायेंगे.

फिर पहले से तय हुई रात को काफिरों ने ह्त्या के लिए मुहम्मद(सल्ल०) के घर को हर तरफ से घेर लिया जिससे कि मुहम्मद(सल्ल०)  के बहार निकलते ही आप कि ह्त्या कर दें. लेकिन अल्लाह ने इस खतरे से आप(सल्ल०) को सावधान करदिया. आप(सल्ल०) ने अपने चचेरे भाई अली(सल्ल०) जो आपके ही साथ रहते थे, से कहा:- 

"अली! मुझ को अल्लाह से हिजरत का आदेश मिल चुका है. काफिर हमारी ह्त्या के लिए हमारे घर को घेरे हुए हैं. मई मदीना जा रहा हूँ, तुम मेरी चादर ओढ़ कर सो जाओ, अल्लाह तुम्हारी रक्षा करेगा, बाद में तुम भी मदीना चले आना."

हज़रात मुहम्मद (सल्ल०) अपने प्रिय साथी अबू-बक्र (रजि०) के साथ मदीना के लिए निकले. मदीना, मक्का से उत्तर दिशा कि और है, लेकिन दुश्मनों को धोखे में रखने के लिए आप(सल्ल०) मक्का से दक्षिण दिशा में यमन के रास्ते पर सोर कि गुफा में पहुचे. ३ दिन उसी गुफा में ठहरे रहे. जब आप (सल्ल०) व हज़रात अबू-बक्र (रजि०) कि तलाश बंद हो गई तब आप(सल्ल०) व अबू-बक्र (रजि०) गुफा से निकल कर मदीना कि और चल दिए.

कई दिन रात चलने के बाद २४ सितम्बर ६२२ ई० को मदीना से पहले कुबा नाम की बस्ती में पहुचे जहाँ मुसलमानों के कई परिवार आज़ाद थे. यहाँ आपने एक मस्जिद कि बुनियाद डाली, जो 'कुबा मस्जिद' के नाम से प्रसिद्ध है. यहीं पर अली(रजि०)  की आप (सल्ल०) से मुलाक़ात हो गई. कुछ दिन यहाँ ठहेरने के बाद आप(सल्ल०) मदीना पहुचे. मदीना पहुचने पर आप (सल्ल०) का सब ओर भव्या हार्दिक स्वागत हुआ.

भाग १.६

अलाह के रसूल (सल्ल०) के मदीना पहुचने के बाद वहां एकेश्वरवादी सत्य-धर्म इस्लाम बड़ी तेज़ी से बढ़ने लगा. हर कोई 'ला इला-ह इलाल्लाह मोहम्मदउर्सूलाल्लाह' यानी 'अलाह के अलावा कोई पूज्य नहीं और मुहम्मद (सल्ल०) अल्लाह के रसूल हैं.' की गूँज सुनाई देने लगी.

काफिर कुरैश, मुनाफिकों (यानी कपटाचारीयों) की मदद से मदीना की खबर लेते रहते. सत्य इस्लाम का प्रवाह रोकने के लिए, अब वे मदीना पर हमला करने की यौज्नाये बनाने लगे.

एक तरफ कुरैश लगातार कई सालों से मुसलमानों पर हर तरह के अत्याचार करने के साथ साथ उन्हें नाश्ता करने पर उतारू थे वहीँ दूसरी तरफ आप(सल्ल०) पर विश्वास लाने वालों(यानी मुसलमानों) को अपना वतन छोड़ना पड़ा, अपनी दोलत, जायदाद छोडनी पड़ी. इसके बाद भी मुसलमान सब्र का दामन थामे ही रहे. लेकिन अत्याचारियों ने मदीना में भी उनको पीछा न छोड़ा और एक बड़ी सेना के साथ मुसलमानों पर हमला कर दिया.

जब पानी सर से ऊपर हो गया तब अल्लाह ने भी मुसलमानों को लड़ने की इजाज़त देदी. अल्लाह का हुक्म आ पहुचा- 

कुरआन, सुरा २२, आयत ३९-

"जिन मुसलमानों से (खामखाह) लड़ाई की जाती है, उन को इजाज़त है (की वे भी लड़ें), क्योंकि उनपर ज़ुल्म हो रहा हैऔर खुदा(उनकी मदद करेगा, वह) यकीनन उनकी मदद पर कुदरत रखता है."

असत्य के लिए लड़ने वाले अत्याचारियों से युद्ध करने का आदेश अल्लाह की और से आचुका था. मुसलमानों को भी सत्य-धर्म इस्लाम की रक्षा के लिए तलवार उठाने की इजाज़त मिल चुकी थी. अब जिहाद (यानी की असत्य और आतंकवाद के विरोध के लिए प्रयास अर्थात धर्मयुद्ध) शुरू हो गया.

सत्य की स्थापना के लिए और अन्याय, अत्याचार तथा आतंक की समाप्ति के लिए किये गए जिहाद में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की विजय होती रही. मक्का व आसपास के काफ़िर मुशरिक औंधे मुह गिरे.

इसके बाद पैगम्बर मोहम्मद(सल्ल०) १०,००० मुसलमानों की सेना के साथ मक्का में असत्य व आतंकवाद की जड़ को समाप्त करने के लिए चले. अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की सफलताओं और मुसलमानों की अपार शक्ति देख मक्का के काफ़िरो ने हथियार दाल दिए. बिना किसी खून खराबे के मक्का फ़तेह कर लिया गया. इस तरह सत्य और शांति की जीत तथा असत्य और आतंकवाद की हार हुई.

मक्का, वही मक्का जहाँ कल अपमान था, आज स्वागत हो रहा था. उदारता और दयालुता की मूर्ति बने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उन सभी लोगों को माफ़ करदिया जिन्होंने आप और मुसलमानों पर बेदर्दी से ज़ुल्म किया ताथापना वतन छोड़ने को मजबूर किया था. आज वे ही मक्का वाले अल्लाह के रसूल के सामने ख़ुशी से कह रहे थे-
"ला इला-ह इल्लाह मुहम्म्दुर्र्सूलाल्लाह"
और झुण्ड के झुण्ड प्रतिजा कर रहे थे:
"अशहदु अल्ला इलाहू इल्लालाहू व अशहदु अन्न मुहम्म्दुर्र्सूलाल्लाह" (मई गवाही देता हूँ की अल्लाह के अलावा कोई पूज्य नहीं हैऔर मई गवाही देता हूँ की मुहम्मद(सल्ल०) अल्लाह के रसूल हैं.

हज़रात मुहम्मद(सल्ल०) की पवित्र जीवनी पढने के बाद मैंने पाया की आप(सल्ल०) ने एकेश्वरवाद के सत्य को स्थापित करने के लिए अपार कष्ट झेले हैं.

मक्का के काफिर सत्य धर्म की राह में रोड़ा डालने के लिए आप को तथा आपके बताये सत्य पर चलने वाले मुसलमानों को लगातार १३ साल तक हर तरह से प्रताड़ित व अपमानित करते रहे. इस घोर अत्याचार के बाद भी आप(सल्ल०) ने धैर्य बनाए रखा. यहाँ तक की आप को अपना वतन मक्का छोड़ कर मदीना जाना पडा. लेकिन मक्का के मुशरिक कुरैश ने आप(सल्ल०) का व मुसलमानों का पीछा यहाँ भी नहीं छुड़ा. जब पानी सर के ऊपर हो गया तो अपनी व मुसलमानों की तशा सत्य की रक्षा के लिए मजबूर होकर आप को लड़ना पडा. इस तरेह आप पर व मुसलमानों पर लड़ाई थोपी गई.

इन्ही परिस्थितियों में सत्या की रक्षा के लिए जिहाद(यानी आत्मरक्षा के लिए धर्मयुद्ध) की आयतें और अन्यायी तथा अत्याचारी काफिरों व मुशरिकों को दंड देने वाली आयतें अल्लाह की और से आप(सल्ल०) पर आसमान से उतरीं.

पैगम्बर हज़रात मोहम्मद(सल्ल०) द्वारा लड़ी गई लडाइयां आक्रमण के लिए न होकर, आक्रमण व आतंकवाद से बचाव के लिए थीं, क्यों की अत्याचारियों के साथ ऐसा किये बिना शान्ति की स्थापना नहीं हो सकती थी.

अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने सत्य तथा तथा शान्ति के लिए अंतीं सीमा तक धैर्य रखा और धैर्या की अंतिम सीमा से युद्ध की शुरुवात होती है. इस प्रकार का युद्ध ही धर्मयुद्ध (यानी जिहाद) कहलाता है.

विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है की कुरैश जिन्होंने आप व मुसलमानों पर भयानक अत्याचार किये थे, फतह मक्का (यानी मक्का विजय) के दिन वे थर ठाट कांप रहे थे की आज क्या होगा? लेकिन आप(सल्ल०) ने उन्हें माफ़ कर गले लगा लिया.

 पैगम्बर hazrat मोहम्मद (सल्ल०) की इस पवित्र जीवनी से सिद्धे होता है की इस्लाम का अंतिम उद्येश्य दुनिया में सत्या और शान्ति की स्थापना और आतंकवाद का विरोध है.

अतः इस्लाम को हिंसा व आतंक से जोड़ना सबसे बड़ा असत्य है. यदि कोई ऐसी घटना होती है तो उसको इस्लाम से या संपूर्ण समुदाय से जोड़ा निः जा सकता.

भाग २.1

अब इस्लाम को विस्तार से जानने के लिये इस्लाम की बुनियाद क़ुरआन की ओर चलते हैं

इस्लाम, आतंक है ? या आदर्श. यह जानने के लिये मैं क़ुरआन माजिद की कुछ आयतें दे रहा हूँ जिन्हें मैंने मौलाना फ़तेह मोहम्मद खां जालंधरी द्वारा हिंदी में अनुवादित और महमूद एंड कंपनी मरोल पाइप लाइन मुंबई - 59 से प्रकाशित क़ुरआन माजिद से लिया है.

यह बात ध्यान देने योग्य है कि कुरआन का अनुवाद करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखना पड़ता है कि किसी भी आयत का भावार्थ ज़रा भी न बदलने पाये. क्योंकि किसी भी क़ीमत पर यह बदला नहीं जा सकता. इसलिए अलग-अलग भाषाओं में अलग-अलग अनुवादकों द्वारा कुरआन माजिद के किये गये अनुवाद का भाव एक ही रहता है.

क़ुरआन की शुरुआत ' बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम 'से होती है , जिसका अर्थ है -शुरू अल्लाह का नाम लेकर , जो बड़ा कृपालु , अत्यंत दयालु है."

ध्यान दें. ऐसा अल्लाह जो बड़ा कृपालु और अत्यंत दयालु है वह ऐसे फ़रमान कैसे जरी कर सकता है, जो किसी को कष्ट पहुँचाने वाले हों अथवा हिंसा या आतंक फैलाने वाले हों ? अल्लाह की इसी कृपालुता और दयालुता का पूर्ण प्रभाव अल्लाह के रसूल सल्ल० ) के व्यावहारिक जीवन में देखने को मिलता है.


क़ुरआन की आयतों से व पैग़म्बर मुहम्मद ( सल्ल० ) की जीवनी से पता चलता है कि मुसलमानों को उन काफ़िरों से लड़ने का आदेश दिया गया जो आक्रमणकारी थे, अत्यचारी थे. यह लड़ाई अपने बचाव के लिये थीं. देखें क़ुरआन माजिद में अल्लाह के आदेश:

"और ( ऐ मुहम्मद ! उस वक़्त को याद करो ) जब काफ़िर लोग तुम्हारे बारे में चाल चल रहे थे कि तुम को क़ैद कर दें या जान से मार डालें या ( वतन से ) निकल दें तो ( इधर से ) वे चाल चाल रहे थे और ( उधर ) ख़ुदा चाल चाल रहा था और ख़ुदा सबसे बेहतर चाल चलने वाला है.- क़ुरआन , सूरा 8, आयत -30 ये लोग हैं कि अपने घरों से ना-हक़ निकल दिए गये , ( उन्होंने कुछ कुसूर नहीं किया ) हां, यह कहते हैं कि हमारा परवरदिगार ख़ुदा है और अगर ख़ुदा लोगों को एक-दूसरे से न हटाता रहता तो ( राहिबों के ) पूजा-घर और ( ईसाईयों के ) गिरजे और ( यहूदियों की ) और ( मुसलमानों की ) मस्जिदें , जिन में ख़ुदा का बहुत-सा ज़िक्र किया जाता है, गिराई जा चुकी होतीं. और जो शख्स ख़ुदा की मदद करता है, ख़ुदा उस की मदद ज़रूर करता है. बेशक ख़ुदा ताक़त वाला और ग़ालिब ( यानी प्रभुत्वशाली ) है".
-क़ुरआन , सूरा २२, आयत - ४०

ये क्या कहते हैं कि इस ने क़ुरान खुद बना लिया है ? कह दो कि अगर सच्चे हो तुम भी ऐसी दस सूरतें बना लाओ और ख़ुदा के सिवा जिस-जिस को बुला सकते हो , बुला लो.-क़ुरआन, सूरा 11, आयत -13 ( ऐ पैग़म्बर ! ) काफ़िरों का शहरों में चलना-फिरना तुम्हें धोखा न दे.
-क़ुरआन , सूरा ३, आयत -१९६

जिन मुसलमानों से ( खामखाह ) लड़ाई की जाती है, उन को इजाज़त है ( की वे भी लड़ें ), क्योंकि उन पर ज़ुल्म हो रहा है और ख़ुदा ( उन की मदद करेगा ,वह ) यक़ीनन उन की मदद पर क़ुदरत रखता है.
-क़ुरआन, सूरा २२, आयत-39

और उनको ( यानि काफ़िर क़ुरैश को ) जहां पाओ , क़त्ल कर दो और जहां से उन्होंने तुमको निकला है ( यानि मक्का से ) वहां से तुम भी उनको निकल दो.
-क़ुरआन , सूरा २, आयत-191

जो लोग ख़ुदा और उसके रसूल से लड़ाई करें और मुल्क में फ़साद करने को दौड़ते फिरें, उन की यह सज़ा है की क़त्ल कर दिए जाएं या सूली पर चढ़ा दिए जाएं या उन के एक-एक तरफ़ के हाथ और एक-एक तरफ़ के पांव कट दिए जाएँ. यह तो दुनियां में उनकी रुसवाई है और आख़िरत ( यानी क़ियामत के दिन ) में उनके लिए बड़ा ( भारी ) अज़ाब ( तैयार ) है.
हाँ, जिन लोगों ने इस से पहले की तुम्हारे क़ाबू आ जाएं , तौबा कर ली तो जान रखो की ख़ुदा बख्शने वाला मेहरबान है.
-क़ुरआन , सूरा ५, आयत-33 ,३४

इस्लाम के बारे में झूठा प्रचार किया जाता है की कुरआन में अल्लाह के आदेशों के कारण ही मुस्लमान लोग ग़ैर-मुसलमानों का जीना हराम कर देते हैं, जबकि इस्लाम में कहीं भी निर्दोष से लड़ने की इजाज़त नहीं है,भले ही वह काफ़िर या मुशरिक या दुश्मन ही क्यों न हों. विशेष रूप से देखिये अल्लाह के ये आदेश:


जिन लोगों ने तुमसे दीन के बारे में जंग नहीं की और न तुम को तुम्हारे घरों से निकला,उन के साथ भलाई और इंसाफ का सुलूक करने से ख़ुदा तुम को मना नहीं करता. ख़ुदा तो इंसाफ करने वालों को दोस्त रखता है.
-कुरआन, सूरा ६०, आयत-८

ख़ुदा उन्हीं लोगों के साथ तुम को दोस्ती करने से मना करता है , जिन्होंने तुम से दीन के बारे में लड़ाई की और तुम को तुम्हारे घरों से निकला और तुम्हारे निकलने में औरों की मदद की , तो जो लोग ऐसों से दोस्ती करेंगे , वही ज़ालिम हैं.
-क़ुरआन , सूरा ६०, आयत- ९

इस्लाम के दुश्मन के साथ भी ज्यादती करना मना है देखिये:
और जो लोग तुमसे लड़ते हैं, तुम भी ख़ुदा की राह में उनसे लड़ो , मगर ज्यादती न करना की ख़ुदा ज्यादती करने वालों को दोस्त नहीं रखता.
-क़ुरआन , सूरा २, आयत-१९०

ये ख़ुदा की आयतें हैं, जो हम तुम को सेहत के साथ पढ़ कर सुनाते हैं और अल्लाह अहले-आलम ( अथार्त जनता ) पर ज़ुल्म नहीं करना चाहता.
-क़ुरआन , सूरा ३, आयत- १०८

इस्लाम का प्रथम उद्देश्य दुनिया में शांति की स्थापना है, लड़ाई तो अंतिम विकल्प है यही तो आदर्श धर्म है, जो नीचे दी गईं इस आयत में दिखाई देता है: ऐ पैग़म्बर ! कुफ्फर से कह दो की अगर वे अपने फ़ेलों से बाज़ न आ जाएँ, तो जो चूका, वह माफ़ कर दिया जायेगा और अगर फिर ( वही हरकतें ) करने लगेंगे तो अगले लोगों का ( जो ) तरीका जरी हो चुका है ( वही उन के हक में बरता जायेगा )
-क़ुरआन ,सूरा ८, आयत-३८

इस्लाम में दुश्मनों के साथ अच्छा न्याय करने का आदेश, न्याय का सर्वोच्च आदर्श प्रस्तुत करता है इसे नीचे दी गई आयत में देखिये:
ऐ इमान वालों ! ख़ुदा के लिए इंसाफ़ की गवाही देने के लिए खड़े हो जाया करो और लोगों की दुश्मनी तुम को इस बात पर तैयार न करे की इंसाफ़ छोड़ दो. इंसाफ़ किया करो क़ि यही परहेज़गारी की बात है और ख़ुदा से डरते रहो. कुछ शक नहीं की ख़ुदा तुम्हारे तमाम कामों से ख़बरदार है.
-क़ुरआन , सूरा ५ आयत- ८

इस्लाम में किसी निर्दोष कि हत्या की इजाज़त नहीं है ऐसा करने वाले को एक ही सज़ा है, खून के बदले खून. लेकिन यह सज़ा केवल क़ातिल को ही मिलनी चाहिये और इसमें ज़्यादती मना है इसे ही तो कहते हैं सच्चा इंसाफ़. देखिये नीचे दिया गया अल्लाह का यह आदेश:
और जिस जानदार का मारना ख़ुदा ने हराम किया है, उसे क़त्ल न करना मगर जायज़ तौर पर ( यानि शरियत के फ़तवे के मुताबिक़ ) और जो शख्स ज़ुल्म से क़त्ल किया जाये , हम ने उसके वारिस को अख्तियार दिया है ( की ज़ालिम क़ातिल से बदला ले ) तो उसे चाहिये की क़त्ल ( के किसास ) में ज़्यादती न करे की वह मंसूर व फ़तेहयाब है.
-क़ुरआन , सूरा १७, आयत -३३

इस्लाम द्वारा, देश में हिंसा ( फ़साद ) करने की इजाज़त नहीं है. देखिये अल्लाह का यह आदेश:
लोगों को उन की चीज़ें कम न दिया करो और मुल्क में फ़साद न करते फिरो।
-क़ुरआन , सूरा २६, आयत-१८३

ज़ालिमों को अल्लाह की चेतावनी :
जो लोग ख़ुदा की आयतों को नहीं मानते और नबियों को ना-हक़ क़त्ल करते रहे हैं जो इंसाफ़ करने का हुक्म देते हैं , उन्हें भी मार डालते हैं उन को दुःख देने वाले अज़ाब की ख़ुश ख़बरी सुना दो.
-क़ुरआन , सूरा ३, आयत-२१ 

भाग २.२ :: सत्य के लिए कष्ट सहने वाले, लड़ने-मरने वाले इश्वर की कृपा के पात्र होंगे, उस के प्रिये होंगे

सत्य के लिए कष्ट सहने वाले, लड़ने-मरने वाले इश्वर की कृपा के पात्र होंगे, उस के प्रिये होंगे :

तो परवरदिगार ने उन की दुआ क़ुबूल कर ली। ( और फ़रमाया ) की मैं किसी अमल करने वाले को, मर्द हो या औरत ज़ाया नहीं करता। तुम एक दुसरे की जींस हो , तो जो लोग मेरे लिए वतन छोड़ गए और अपने घरों से निकले गये और सताये गये और लड़े और क़त्ल किये गये में उनके गुनाह दूर कर दूंगा. और उनको बहिश्तों में दाख़िल करूंगा, जिनके नीचे नहरें बह रही हैं. ( यह ) ख़ुदा के यहां से बदला है और ख़ुदा के यहां अच्छा बदला है.
-क़ुरआन , सूरा ३, आयत-१९५

इस्लाम को बदनाम करने के लिए लिख-लिख कर प्रचारित किया गया की इस्लाम तलवार के बल पर प्रचारित व प्रसारित मज़हब है. मक्का सहित सम्पूर्ण अरब व दुनिया के अधिकांश मुस्लमान,तलवार के जोर पर ही मुस्लमान बनाए गये थे इस तरह इस्लाम का प्रसार जोर-ज़बरदस्ती से हुआ.
जबकि इस्लाम में किसी को जोर ज़बरदस्ती से मुस्लमान बनाने की सख्त मनाही है. क़ुरआन माजिद में अल्लाह के ये आदेश :
और अगर तुम्हारा परवरदिगार ( यानि अल्लाह ) चाहता, तो जितने लोग ज़मीं पर हैं, सब के सब इमा ले आते. तो क्या तुम लोगों पर ज़बरदस्ती करना चाहते हो की वे मोमिन ( यानि मुस्लमान ) हो जाएं.
-क़ुरआन, सूरा 10 , आयत-99

'शुरू अल्लह का नाम लेकर, जो बड़ा कृपालु, अत्यंत दयालु है.'
( ऐ पैग़म्बर ! इस्लाम के इन नास्तिकों से ) कह दो कि ऐ काफ़िरों ! ( 1 )
जिन ( बुतों ) को तुम पूजते हो, उन को मैं नहीं पूजता , ( 2 )
और जिस ( ख़ुदा ) की मैं इबादत करता हूँ, उस की तुम इबादत नहीं करते, ( 3 )
और ( मैं फिर कहता हूँ कि ) जिन की तुम पूजा करते हो, उन की मैं पूजा नहीं करने वाला हूँ. ( 4 )
और न तुम उसकी बंदगी करने वाले ( मालूम होते ) हो, जिसकी मैं बंदगी करता हूँ. ( 5 )
तुम अपने दीन पर, मैं अपने दीन पर. ( 6 )
-क़ुरआन , सूरा १०९, आयत-१-६

ऐ पैग़म्बर ! अगर ये लोग तुमसे झगड़ने लगें, तो कहना कि मैं और मेरी पैरवी करने वाले तो ख़ुदा के फ़रमाँबरदार ( अथार्त आज्ञाकारी ) हो चुके और अहले किताब और अन-पढ़ लोगों से कहो कि क्या तुम भी ( ख़ुदा के फ़रमाँबरदार बनते और ) इस्लाम लाते हो ? अगर ये लोग इस्लाम ले आयें तो बेशक हिदायत पा लें और अगर ( तुम्हारा कहा ) न मानें, तो तुम्हारा काम सिर्फ ख़ुदा का पैग़ाम पहुंचा देना है. और ख़ुदा ( अपने ) बन्दों को देख रहा है.
-क़ुरआन , सूरा ३, आयात-२०

कह दो कि ऐ अहले किताब ! जो बात हमारे और तुम्हारे दरमियां एक ही ( मान ली गयी ) है , उसकी तरफ़ आओ, वह यह कि ख़ुदा के सिवा किसी की पूजा न करें और उसके साथ किसी चीज़ को शरीक ( यानि साझी ) न बनायें और हममें से कोई किसी को ख़ुदा के सिवा अपना करसाज़ न समझे. अगर ये लोग ( इस बात को ) न मानें तो ( उनसे ) कह दो कि तुम गवाह रहो कि हम ( ख़ुदा के ) फ़रमाँबरदार हैं.
-क़ुरआन , सूरा 3 , आयात-64

इस्लाम में , ज़ोर ज़बरदस्ती से धर्म परिवर्तन कि मनाही के साथ-साथ इससे भी आगे बढ़ कर किसी भी प्रकार कि ज़ोर-ज़बरदस्ती कि इजाज़त नहीं है. देखिये अल्लाह का यह आदेश :

दीं-ए-इस्लाम में ज़बरदस्ती नहीं है.
-क़ुरआन , सूरा २, आयात- २५६

हाँ, जो बुरे काम करे और उसके गुनाह ( हर तरफ़ से ) उसको घेर लें तो ऐसे लोग दोज़ख ( में जाने ) वाले हैं. ( और ) हमेशा उसमें ( जलते ) रहेंगे.
-क़ुरआन , सूरा २, आयात- ८१

निष्कर्ष- पैग़म्बर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की जीवनी व कुरआन मजीद की आयतों को देखने के बाद स्पष्ट है की हज़रत मुहम्मद ( सल्ल० ) की करनी और कुरआन की कथनी में कहीं भी आतंकवाद नहीं है.
इससे सिद्ध होता है की इस्लाम की अधूरी जानकारी रखने वाले ही अज्ञानता के कारन इस्लाम को आतंकवाद से जोड़ते हैं.

भाग ३.१ :: कुरआन की वे चौबीस आयतें

कुरआन की वे चौबीस आयतें
कुछ लोग कुरआन की 24 आयतों वाला एक पैम्फलेट कई सालों से देश की जनता के बीच बाँट रहे हैं जो भारत की लगभग सभी मुख्य क्षेत्रीय भाषों में छपता है. इस पैम्फलेट का शीर्षक है ' कुरआन की कुछ आयतें जो इमानवालों ( मुसलमानों ) को अन्य धर्मावलम्बियों से झगड़ा करने का आदेश देती हैं. जैसा की किताब की शुरुआत में ' जब मुझे सत्य की ज्ञान हुआ ' में मैंने लिखा है की इसी पर्चे को पढ़ कर मैं भ्रमित हो गया था. यह परचा जैसा छपा है, वैसा ही नीचे दे रहा हूँ :

कुरआन की कुछ आयतें जो इमानवालों ( मुसलमानों ) को अन्य धर्मावलम्बियों से झगड़ा करने का आदेश देती हैं.

१ -" फिर, जब हराम के महीने बीत जाएं , तो ' मुशरिकों' को जहाँ कहीं पाओ क़त्ल करो, और पकड़ो , और उन्हें घेरो, और हर घात की जगह उनकी ताक में बैठो. फिर यदि वे 'तौबा ' कर लें नमाज़ क़ायम करें और, ज़कात दें, तो उनका मार्ग छोड़ दो. नि:संदेह अल्लाह बड़ा क्षमाशील और दया करने वाला है."
- (१०, ९, ५)

२ -" हे ईमान' लेन वालो ! ' मुशरिक' ( मूर्तिपूजक ) नापाक हैं."
-(१०, ९, २८)

३ -" नि: संदेह ' काफ़िर ' तुम्हारे खुले दुश्मन हैं."
- (५, ४, १०१)

४ - " हे 'इमान' लाने वालों ! ( मुसलमानों ! ) उन ' काफ़िरों ' से लड़ो जो तुम्हारे आस-पास हैं , और चाहिए कि वे तुममें सखती पायें."
- (११, ९, १२३)

५ - " जिन लोगों ने हमारी 'आयतों ' का इंकार किया, उन्हें हम जल्द अग्नि में झोंक देंगे. जब उनकी खालें पाक जायेंगी तो हम उन्हें दूसरी खालों में बदल देंगे ताकि वे यातना का रसास्वादन कर लें. नि: संदेह अल्लाह प्रभुत्वशाली तत्वदर्शी है. "
- (५, ४, ५६)

६ - ' हे ' ईमान ' लेन वालो ! ( मुसलमानों ! ) अपने बापों और भाइयों को अपना मित्र मत बनाओ यदि वे ' ईमान ' की अपेक्षा ' कुफ़्र ' को पसंद करें. और तुम में से जो कोई उनसे मित्रता का नाता जोड़ेगा तो ऐसे ही लोग ज़ालिम होंगे."
- (१०, ९, २३)

७ - " अल्लाह 'काफ़िर ' लोगों को मार्ग नहीं दिखता."
- (१०, ९, ३७)

८ - " हे 'ईमान' लेन वालों ! ------और 'काफ़िरों' को अपना मित्र मत बनाओ. अल्लाह से डरते रहो यदि तुम ईमान वाले हो."
- (६, ५, ५७)

९ - " फिट्कारे हुए लोग ( ग़ैरमुस्लिम ) जहाँ कहीं पाये जायेंगे पकड़े जायेंगे और बुरी तरह क़त्ल किये जायेंगे."
- (२२, २३, ६१)

१० - " ( कहा जायेगा ) : निश्चेय ही तुम और वह जिसे तुम अल्लाह के सिवा पूजते थे ' जहन्नम ' का इंधन हो. तुम अवश्य उसके घाट उतरोगे."
- (१७, २१, ९८)

११ - " और उससे बढ़ कर ज़ालिम कौन होगा जिसे उसके ' रब ' की ' आयतों ' के द्वारा चेताया जाये , और फिर वह उनसे मुंह फेर ले. निश्चय ही हमें ऐसे अपराधियों से बदला लेना है."
- (२२, ३२, २२)

१२ - ' अल्लाह ने तुमसे बहुत सी ' गनिमतों ' ( लूट ) का वादा किया है जो तुम्हारे हाथ आयेंगी,"
- (२६, ४८, २०)

१३ - " तो जो कुछ ' गनीमत ' ( लूट ) का माल तुमने हासिल किया है उसे ' हलाल ' व पाक समझ कर खाओ,"
- (१०, ८, ६९)

१४ - ' हे नबी ! ' काफ़िरों ' और ' मुनाफ़िकों ' के साथ जिहाद करो, और उन पर सख्ती करो और उनका ठिकाना ' जहन्नम ' है , और बुरी जगह है जहाँ पहुंचे."
- (२८, ६६, ९)

१५ -" तो अवश्य हम ' कुफ्र ' करने वालों को यातना का मज़ा चखाएंगे, और अवश्य ही हम उन्हें सबसे बुरा बदला देंगे उस कर्म का जो वे करते थे."
- (२४, ४१, २७)

१६ - " यह बदला है अल्लाह के शत्रुओं का ( ' जहन्नम ' की ) आग. इसी में उनका सदा घर है. इसके बदले में की हमारी ' आयतों ' का इंकार करते थे."
- (२४, ४१, २८)

१७ - " " नि: संदेह अल्लाह ने ' ईमान वालों ( मुसलमानों ) से उनके प्राणों और मालों को इसके बदले में ख़रीद लिया है कि उनके लिये ' जन्नत ' है वे अल्लाह के मार्ग में लड़ते हैं तो मारते भी है और मारे भी जाते हैं."
- (११, ९, १११)

१८ - " अल्लाह ने इन मुनाफ़िक़ ( अर्ध मुस्लिम ) पुरूषों और मुनाफ़िक़ स्त्रियों और ' काफ़िरों ' से ' जहन्नुम ' कि आग का वादा किया है जिसमें वे सदा रहेंगे. यही उन्हें बस है. अल्लाह ने उन्हें लानत की और उनके लिये स्थायी यातना हैं. "
- (१०, ९, ६८)

१९ - हे नबी ! ' ईमान वालों ( मुसलमानों ) को लड़ाई पर उभारो. यदि तुम में 20 जमे रहने वाले होंगे तो वे 200 पर प्रभुत्व प्राप्त करेंगे , और यदि तुम में 100 हों तो 1000 ' काफ़िरों ' पर भरी रहेंगे , क्योंकि वे ऐसे लोग हैं जो समझ बूझ नहीं रखते. "
- (१०, ८, ६५)

२० - " हे ईमान वालों ( मुसलमानों ) तुम ' यहूदियों ' और ' ईसाईयों ' को मित्र न बनाओ. ये आपस में एक दूसरे के मित्र हैं. और जो कोई तुम में से उनको मित्र बनायेगा, वह उन्हीं में से होगा. नि: संदेह अल्लाह ज़ुल्म करने वालों को मार्ग नहीं दिखाता. "
- (६, ५, ५१)

२१ - " किताब वाले " जो न अल्लाह अपर 'ईमान' लाते हैं न अंतिम दिन पर, न उसे ' हराम ' करते जिसे अल्लाह और उसके ' रसूल ' ने हराम ठहराया है, और न सच्चे ' दीन ' को अपना ' दीन ' बनाते हैं , उनसे लड़ो यहाँ तक की वे अप्रतिशिष्ट ( अपमानित ) हो कर अपने हाथों से ' जिज़्या ' देने लगें."
- (१०, ९, २९)

२२ -" ----------- फिर हमनें उनके बीच 'क़ियामत ' के दिन तक के लिए वैमनस्य और द्वेष की आग भड़का दी, और अल्लाह जल्द उन्हें बता देगा जो कुछ वे करते रहे हैं."
- (६, ५, १४)

२३ - " वे चाहते हैं की जिस तरह से वे 'काफ़िर' हुए हैं उसी तरह से तुम भी ' काफ़िर ' हो जाओ , फिर तुम एक जैसे हो जाओ तो उनमें से किसी को अपना साथी न बनाना जब तक वे अल्लाह की राह में हिजरत न करें, और यदि वे इससे फिर जावें तो उन्हें जहाँ कहीं पाओ पकड़ो और उनका ( क़त्ल ) वध करो. और उनमें से किसी को साथी और सहायक मत बनाना."
- (५, ४, ८९)

२४ - " उन ( काफ़िरों ) से लड़ो ! अल्लाह तुम्हारे हाथों उन्हें यातना देगा , और उन्हें रुसवा करेगा और उनके मुक़ाबले में तुम्हारी सहायता करेगा , और 'ईमान ' वालों के दिल ठंडे करेगा."
- (१०, ९, १४)

उपरोक्त आयतों से स्पष्ट है की इनमें इर्ष्या, द्वेष , घृणा , कपट, लड़ाई-झगडा, लूट-मार और हत्या करने के आदेश मिलते हैं. इन्हीं कारणों से देश व विदेश में मुस्लिमों के बीच दंगे हुआ करते हैं.

भाग ३.२

दिल्ली प्रशासन ने सन् 1985  में सर्व श्री इन्द्रसेन शर्मा और राजकुमार आर्य के विरुद्ध दिल्ली के मैट्रोपोलिटन मैजिस्ट्रेट की अदालत में, उक्त पत्रक छापने के आरोप में मुक़द्दमा किया था । न्यायालय ने 31 जुलाई 1986 को उक्त दोनों महानुभावों को बरी करते हुए निर्णय दिया कि:

" कुरआन मजीद की पवित्र पुस्तक के प्रति आदर रखते हुए उक्त आयतों के सूक्षम अध्यन से स्पष्ट होता है कि ये आयतें बहुत हानिकारक हैं और घृणा की शिक्षा देती हैं, जिससे मुसलमानों और देश के अन्य वर्गों में भेदभाव को बढ़ावा मिलने की संभावना होती है ।"

हिन्दू रायटर्स फोरम , नयी दिल्ली - 27 द्वारा पुनर्मुद्रित एवं प्रकाशित

ऊपर दिए गए इस पैम्फलेट का सबसे पहले पोस्टर छापा गया  था । जिसे श्री इन्द्रसेन शर्मा ( तत्कालीन उप प्रधान, हिन्दू महासभा, दिल्ली ) और श्री राज कुमार आर्य ने छपवाया था । इस पोस्टर में कुरआन मजीद की आयतें, मोहम्मद फारूख खां द्वारा हिंदी अनुवादित तथा मक्तबा अल हसनात रामपुर से 1996 में प्रकाशित कुरआन मजीद से ली गई थीं । यह पोस्टर छपने के कारण इन दोनों लोगों पर इंडियन पेनल कोड की धरा 153 ए और 165 ए के अंतर्गत ( एफ० आइ० आर० 237/83यू0 /एस,235, 1पी०सी० हौज़ क़ाज़ी , पुलिस स्टेशन दिल्ली ) में मुक़द्दमा चला था जिसमें उक्त फ़ैसला हुआ था ।
अब हम देखेंगे की क्या इस पैम्फलेट की यह आयतें वास्तव में विभिन्न वर्गों के बीच घृणा फैलाने व झगड़ा करने वाली हैं ?


पैम्फलेट में लिखी पहले क्रम की आयत है :
1 - ' फिर जब हराम के महीने बीत जाएँ तो " मुशरिकों ' को जहाँ कहीं पाओ क़त्ल करो , और पकड़ो , और उन्हें घेरो , और हर घात की जगह उनकी ताक में बैठो। फिर यदि वे 'तौबा' कर लें नमाज़ क़ायम करें और, ज़कात दें , तो उनका मार्ग छोड़ दो । नि:संदेह अल्लाह बड़ा क्षमाशील और दया करने वाला है ।"

इस आयत के सन्दर्भ में-जैसा कि हज़रत मुहम्मद ( सल्ल० ) की जीवनी से स्पष्ट है की मक्का में और मदीना जाने के बाद भी मुशरिक काफ़िर कुरैश , अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) के पीछे पड़े थे । वह आप को सत्य-धर्म इस्लाम को समाप्त करने के लिए हर संभव कोशिश करते रहते । काफ़िर कुरैश ने अल्लाह के रसूल को कभी चैन से बैठने नहीं दिया । वह उनको सदैव सताते ही रहे । इसके लिए वह सदैव लड़ाई की साजिश रचते रहते ।
अल्लाह के रसूल ( सल्ल०) के हिजरत के छटवें साल ज़ीक़दा महीने में आप ( सल्ल० ) सैंकड़ों मुसलमानों के साथ हज के लिए मदीना से मक्का रवाना हुए । लेकिन मुनाफिकों  ( यानि कपटचारियों ) ने इसकी ख़बर क़ुरैश को दे दी । क़ुरैश पैग़म्बर मुहम्मद ( सल्ल० ) को घेरने का कोई मौक़ा हाथ से जाने न देते । इस बार भी वह घात लगाकर रस्ते में बैठ गये । इसकी ख़बर आप ( सल्ल० ) को लग गई । आपने रास्ता बदल दिया और मक्का के पास हुदैबिया कुँए के पास पड़ाव डाला । कुँए के नाम पर इस जगह का नाम हुदैबिया था ।
जब क़ुरैश को पता चला कि मुहम्मद अपने अनुयायी मुसलमानों के साथ मक्का के पास पहुँच चुके हैं और हुदैबिया पर पड़ाव डाले हुए हैं , तो काफ़िरों ने कुछ लोगों को आप की हत्या के लिए हुदैबिया भेजा, लेकिन वे सब हमले से पहले ही मुसलमानों द्वारा पकड़ लिए गये और अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) के सामने लाये गये । लेकिन आपने उन्हें ग़लती का एहसास कराकर माफ़ कर दिया ।


उसके बाद लड़ाई-झगड़ा, खून-ख़राबा टालने के लिए हज़रत उस्मान ( रज़ि० ) को क़ुरैश से बात करने के लिए भेजा । लेकिन क़ुरैश ने हज़रत उस्मान ( रज़ि०) को क़ैद कर लिया । उधर हुदैबिया में पड़ाव

डाले अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) को ख़बर लगी कि हज़रत उस्मान ( रज़ि० ) क़त्ल कर दिए गये । यह सुनते ही मुस्लमान हज़रत उस्मान ( रज़ि० ) के क़त्ल का बदला लेने के लिये तैयारी करने लगे ।
जब क़ुरैश को पता चला कि मुस्लमान अब मरने-मारने को तैयार हैं और अब युद्ध निश्चित है तो बातचीत के लिये सुहैल बिन अम्र को हज़रत मुहम्मद ( सल्ल० ) के पास हुदैबिया भेजा । सुहैल से मालूम हुआ कि उस्मान ( रज़ि० ) का क़त्ल नहीं हुआ वह क़ुरैश कि क़ैद में हैं । सुहैल ने हज़रत उस्मान ( रज़ि० ) को क़ैद से आज़ाद करने व युद्ध टालने के लिये कुछ शातें पेश कीं ।


[ पहली शर्त थी- इस साल आप सब बिना हज किये लौट जाएँ । अगले साल आएं लेकिन तीन दिन बाद चले जाएँ ।


[ दूसरी शर्त थी- हम क़ुरैश का कोई आदमी मुस्लमान बन कर यदि आए तो उसे हमें वापस किया जाये । लेकिन यदि कोई मुस्लमान मदीना छोड़कर मक्का में आ जाए, तो हम वापस नहीं करेंगे ।


[ तीसरी शर्त थी- कोई भी क़बीला अपनी मर्ज़ी से क़ुरैश के साथ या मुसलमानों के साथ शामिल हो सकता है ।


[ समझौते में चौथी शर्त थी- कि:- इन शर्तों को मानने के बाद क़ुरैश औए मुसलमान न एक दुसरे पर हमला करेंगे और न ही एक दुसरे के सहयोगी क़बीलों पर हमला करेंगे । यह समझौता 10  साल के लिए हुआ , हुबैदिया समझौते के नाम से जाना जाता है ।


हालाँकि यह शर्तें एक तरफ़ा और अन्यायपूर्ण थीं, फिर भी शांति और सब्र के दूत मुहम्मद ( सल्ल० ) ने इन्हें स्वीकार कर लिया , जिससे शांति स्थापित हो सके ।
लेकिन समझौता होने के दो ही साल बाद बनू-बक्र नामक

क़बीले ने जो मक्का के क़ुरैश का सहयोगी था, मुसलमानों के सहयोगी क़बीले खुज़ाआ पर हमला कर दिया । इस हमले में क़ुरैश ने बनू-बक्र क़बीले का साथ दिया ।
खुज़ाआ क़बीले के लोग भाग कर  हज़रत मुहम्मद ( सल्ल० ) के पास पहुंचे और इस हमले कि ख़बर दी । पैग़म्बर मुहम्मद ( सल्ल०) ने शांति के लिए इतना झुक कर समझौता किया था । इसके बाद भी क़ुरैश ने धोखा देकर समझौता तोड़ डाला ।


अब युद्ध एक आवश्यकता थी , धोखा देने वालों को दण्डित करना शांति कि स्थापना के लिए ज़रूरी था । इसी ज़रुरत को देखते हुए अल्लाह कि ओर से सूरा 9 की आयत नाज़िल हुई ।


इनके नाज़िल होने पर नबी ( सल्ल० ) ने सूरा 9 की आयतें सुनाने के लिए हज़रत ( रज़ि० ) को मुशरिकों के पास भेजा । हज़रत अली ( रज़ि० ) ने जाकर मुशरिकों से यह कहते हुए किमुसलमानों के लिए अल्लाह का फ़रमान आ चुका है उन को सूरा 9 की यह आयत सुना दी-


( ऐ मुसलमानों ! अब ) ख़ुदा और उसके रसूल की तरफ़ से मुशरिकों से, जिन तुम ने अह्द ( यानि समझौता ) कर रखा था, बे-ज़ारी ( और जंग की तैयारी ) है । (1 )
तो ( मुशरिको ! तुम ) ज़मीन में चार महीने चल फिर लो और जान रखो कि तुम को आजिज़ न कर सकोगे और यह भी कि ख़ुदा काफ़िरों को रुसवा करने वाला है । ( 2 )
और हज्जे-अकबर के दिन ख़ुदा और उसके रसूल कि तरफ़ से आगाह किया जाता है कि ख़ुदा मुशरिकों से बेज़ार है  और उसका रसूल भी ( उन से दस्तबरदार है ) । पस अगर तुम तौबा कर लो , तो तुम्हारे हक़ में बेहतर है और न मानो ( और ख़ुदा से मुक़ाबला करो ) तो जान रखो 
कि तुम ख़ुदा को हरा नहीं सकोगे और ( ऐ पैग़म्बर ! ) काफ़िरों को दु:ख देने वाले अज़ाब कि ख़बर सुना दो । ( 3 )
-कुरआन, पारा 10 , सूरा 9 , आयत- 1 ,2 ,3 ,

अली ने मुशरिकों से कह दिया कि " यह अल्लाह का फ़रमान है अब समझैता टूट चुका है और यह तुम्हारे द्वारा तोड़ा गया है इसलिये अब इज़्ज़त के चार महीने बीतने के बाद तुम से जंग ( यानि युद्ध ) है.


समझौता तोड़ कर हमला करने वालों पर जवाबी हमला कर उन्हें कुचल देना मुसलमानों का हक़ बनता था, वह भी मक्के के उन मुशरिकों के विरुद्ध जो मुसलमानों के लिए सदैव से अत्याचारी व आक्रमणकारी थे । इसलिये सर्वोच्च न्यायकर्ता अल्लाह ने पांचवीं आयत का फ़रमान भेजा ।
इस पांचवी आयत से पहले वाली चौथी आयत " अल-बत्ता, जिन मुशरिकों के साथ तुम ने अह्द किया हो, और उन्होंने तुम्हारा किसी तरह का क़ुसूर न किया हो और न तुम्हारे मुक़ाबले में किसी कि मदद की हो, तो जिस मुद्दत तक उसके साथ अह्द किया हो , उसे पूरा करो ( कि ) ख़ुदा परहेज़गारों को दोस्त रखता है ।
" - कुरआन, पारा 10 , सूरा 9 , आयत-4

से स्पष्ट है कि जंग का यह एलान उन मुशरिकों के विरुद्ध था जिन्होनें युद्ध के लिए उकसाया, मजबूर किया, उन मुशरिकों के विरुद्ध नहीं जिन्होनें ऐसा नहीं किया । युद्ध का यह एलान आत्मरक्षा व धर्मरक्षा के लिए था ।
अत: अन्यायियों , अत्याचारियों द्वारा ज़बदस्ती थोपे गये युद्ध से अपने बचाव के लिए किये जाने वाला नहीं कहा जा सकता ।

अत्याचारियों  और अन्यायियों से अपनी व धर्म की रक्षा के लिए युद्ध करना और युद्ध के लिए सैनिकों को उत्साहित करना धर्म सम्मत है  

इस पर्चे को छापने व बाँटने वाले लोग क्या यह नहीं जानते कि अत्याचारियों  और अन्यायियों के विनाश के लिए ही योगेश्वर श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था । क्या यह उपदेश लड़ाई-झगड़ा करने वाला या घृणा फैलाने वाला है? यदि नहीं, तो फिर कुरआन के लिए ऐसा क्यों कहा जाता है?
फिर यह सूरा उस समय मक्का के अत्याचारी मुशरिकों के विरुद्ध उतारी गयी । जो अल्लाह के रसूल के ही भाई-बन्धु  क़ुरैश थे । फिर इसे आज के सन्दर्भ में और हिन्दुओं के लिए क्यों लिया जा रहा है ? क्या हिन्दुओं व अन्य ग़ैरमुस्लिमों को उकसाने और उनके मन में मुसलमानों के लिए घृणा भरने तथा इस्लाम को बदनाम करने की घृणित साज़िश नहीं है

भाग ३.३

दिल्ली प्रशासन ने सन् 1985 में सर्व श्री इन्द्रसेन शर्मा और राजकुमार आर्य के विरुद्ध दिल्ली के मैट्रोपोलिटन मैजिस्ट्रेट की अदालत में, उक्त पत्रक छापने के आरोप में मुक़द्दमा किया था । न्यायालय ने 31 जुलाई 1986 को उक्त दोनों महानुभावों को बरी करते हुए निर्णय दिया कि:

" कुरआन मजीद की पवित्र पुस्तक के प्रति आदर रखते हुए उक्त आयतों के सूक्षम अध्यन से स्पष्ट होता है कि ये आयतें बहुत हानिकारक हैं और घृणा की शिक्षा देती हैं, जिससे मुसलमानों और देश के अन्य वर्गों में भेदभाव को बढ़ावा मिलने की संभावना होती है ।"

हिन्दू रायटर्स फोरम , नयी दिल्ली - 27 द्वारा पुनर्मुद्रित एवं प्रकाशित ।

ऊपर दिए गए इस पैम्फलेट का सबसे पहले पोस्टर छापा गया था । जिसे श्री इन्द्रसेन शर्मा ( तत्कालीन उप प्रधान, हिन्दू महासभा, दिल्ली ) और श्री राज कुमार आर्य ने छपवाया था । इस पोस्टर में कुरआन मजीद की आयतें, मोहम्मद फारूख खां द्वारा हिंदी अनुवादित तथा मक्तबा अल हसनात रामपुर से 1996 में प्रकाशित कुरआन मजीद से ली गई थीं । यह पोस्टर छपने के कारण इन दोनों लोगों पर इंडियन पेनल कोड की धरा 153 ए और 165 ए के अंतर्गत ( एफ० आइ० आर० 237/83यू0 /एस,235ए, 1पी०सी० हौज़ क़ाज़ी , पुलिस स्टेशन दिल्ली ) में मुक़द्दमा चला था जिसमें उक्त फ़ैसला हुआ था ।
अब हम देखेंगे की क्या इस पैम्फलेट की यह आयतें वास्तव में विभिन्न वर्गों के बीच घृणा फैलाने व झगड़ा करने वाली हैं ?

पैम्फलेट में लिखी पहले क्रम की आयत है :
1 - ' फिर जब हराम के महीने बीत जाएँ तो " मुशरिकों ' को जहाँ कहीं पाओ क़त्ल करो , और पकड़ो , और उन्हें घेरो , और हर घात की जगह उनकी ताक में बैठो। फिर यदि वे 'तौबा' कर लें नमाज़ क़ायम करें और, ज़कात दें , तो उनका मार्ग छोड़ दो । नि:संदेह अल्लाह बड़ा क्षमाशील और दया करने वाला है ।"

इस आयत के सन्दर्भ में-जैसा कि हज़रत मुहम्मद ( सल्ल० ) की जीवनी से स्पष्ट है की मक्का में और मदीना जाने के बाद भी मुशरिक काफ़िर कुरैश , अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) के पीछे पड़े थे । वह आप को सत्य-धर्म इस्लाम को समाप्त करने के लिए हर संभव कोशिश करते रहते । काफ़िर कुरैश ने अल्लाह के रसूल को कभी चैन से बैठने नहीं दिया । वह उनको सदैव सताते ही रहे । इसके लिए वह सदैव लड़ाई की साजिश रचते रहते ।
अल्लाह के रसूल ( सल्ल०) के हिजरत के छटवें साल ज़ीक़दा महीने में आप ( सल्ल० ) सैंकड़ों मुसलमानों के साथ हज के लिए मदीना से मक्का रवाना हुए । लेकिन मुनाफिकों ( यानि कपटचारियों ) ने इसकी ख़बर क़ुरैश को दे दी । क़ुरैश पैग़म्बर मुहम्मद ( सल्ल० ) को घेरने का कोई मौक़ा हाथ से जाने न देते । इस बार भी वह घात लगाकर रस्ते में बैठ गये । इसकी ख़बर आप ( सल्ल० ) को लग गई । आपने रास्ता बदल दिया और मक्का के पास हुदैबिया कुँए के पास पड़ाव डाला । कुँए के नाम पर इस जगह का नाम हुदैबिया था ।
जब क़ुरैश को पता चला कि मुहम्मद अपने अनुयायी मुसलमानों के साथ मक्का के पास पहुँच चुके हैं और हुदैबिया पर पड़ाव डाले हुए हैं , तो काफ़िरों ने कुछ लोगों को आप की हत्या के लिए हुदैबिया भेजा, लेकिन वे सब हमले से पहले ही मुसलमानों द्वारा पकड़ लिए गये और अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) के सामने लाये गये । लेकिन आपने उन्हें ग़लती का एहसास कराकर माफ़ कर दिया ।

उसके बाद लड़ाई-झगड़ा, खून-ख़राबा टालने के लिए हज़रत उस्मान ( रज़ि० ) को क़ुरैश से बात करने के लिए भेजा । लेकिन क़ुरैश ने हज़रत उस्मान ( रज़ि०) को क़ैद कर लिया । उधर हुदैबिया में पड़ाव

डाले अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) को ख़बर लगी कि हज़रत उस्मान ( रज़ि० ) क़त्ल कर दिए गये । यह सुनते ही मुस्लमान हज़रत उस्मान ( रज़ि० ) के क़त्ल का बदला लेने के लिये तैयारी करने लगे ।
जब क़ुरैश को पता चला कि मुस्लमान अब मरने-मारने को तैयार हैं और अब युद्ध निश्चित है तो बातचीत के लिये सुहैल बिन अम्र को हज़रत मुहम्मद ( सल्ल० ) के पास हुदैबिया भेजा । सुहैल से मालूम हुआ कि उस्मान ( रज़ि० ) का क़त्ल नहीं हुआ वह क़ुरैश कि क़ैद में हैं । सुहैल ने हज़रत उस्मान ( रज़ि० ) को क़ैद से आज़ाद करने व युद्ध टालने के लिये कुछ शातें पेश कीं ।

[ पहली शर्त थी- इस साल आप सब बिना हज किये लौट जाएँ । अगले साल आएं लेकिन तीन दिन बाद चले जाएँ ।


[ दूसरी शर्त थी- हम क़ुरैश का कोई आदमी मुस्लमान बन कर यदि आए तो उसे हमें वापस किया जाये । लेकिन यदि कोई मुस्लमान मदीना छोड़कर मक्का में आ जाए, तो हम वापस नहीं करेंगे ।


[ तीसरी शर्त थी- कोई भी क़बीला अपनी मर्ज़ी से क़ुरैश के साथ या मुसलमानों के साथ शामिल हो सकता है ।

[ समझौते में चौथी शर्त थी- कि:- इन शर्तों को मानने के बाद क़ुरैश औए मुसलमान न एक दुसरे पर हमला करेंगे और न ही एक दुसरे के सहयोगी क़बीलों पर हमला करेंगे । यह समझौता 10 साल के लिए हुआ , हुबैदिया समझौते के नाम से जाना जाता है ।

हालाँकि यह शर्तें एक तरफ़ा और अन्यायपूर्ण थीं, फिर भी शांति और सब्र के दूत मुहम्मद ( सल्ल० ) ने इन्हें स्वीकार कर लिया , जिससे शांति स्थापित हो सके ।
लेकिन समझौता होने के दो ही साल बाद बनू-बक्र नामक

क़बीले ने जो मक्का के क़ुरैश का सहयोगी था, मुसलमानों के सहयोगी क़बीले खुज़ाआ पर हमला कर दिया । इस हमले में क़ुरैश ने बनू-बक्र क़बीले का साथ दिया ।
खुज़ाआ क़बीले के लोग भाग कर हज़रत मुहम्मद ( सल्ल० ) के पास पहुंचे और इस हमले कि ख़बर दी । पैग़म्बर मुहम्मद ( सल्ल०) ने शांति के लिए इतना झुक कर समझौता किया था । इसके बाद भी क़ुरैश ने धोखा देकर समझौता तोड़ डाला ।

अब युद्ध एक आवश्यकता थी , धोखा देने वालों को दण्डित करना शांति कि स्थापना के लिए ज़रूरी था । इसी ज़रुरत को देखते हुए अल्लाह कि ओर से सूरा 9 की आयत नाज़िल हुई ।


इनके नाज़िल होने पर नबी ( सल्ल० ) ने सूरा 9 की आयतें सुनाने के लिए हज़रत ( रज़ि० ) को मुशरिकों के पास भेजा । हज़रत अली ( रज़ि० ) ने जाकर मुशरिकों से यह कहते हुए किमुसलमानों के लिए अल्लाह का फ़रमान आ चुका है उन को सूरा 9 की यह आयत सुना दी-

( ऐ मुसलमानों ! अब ) ख़ुदा और उसके रसूल की तरफ़ से मुशरिकों से, जिन तुम ने अह्द ( यानि समझौता ) कर रखा था, बे-ज़ारी ( और जंग की तैयारी ) है । (1 )
तो ( मुशरिको ! तुम ) ज़मीन में चार महीने चल फिर लो और जान रखो कि तुम को आजिज़ न कर सकोगे और यह भी कि ख़ुदा काफ़िरों को रुसवा करने वाला है । ( 2 )
और हज्जे-अकबर के दिन ख़ुदा और उसके रसूल कि तरफ़ से आगाह किया जाता है कि ख़ुदा मुशरिकों से बेज़ार है और उसका रसूल भी ( उन से दस्तबरदार है ) । पस अगर तुम तौबा कर लो , तो तुम्हारे हक़ में बेहतर है और न मानो ( और ख़ुदा से मुक़ाबला करो ) तो जान रखो कि तुम ख़ुदा को हरा नहीं सकोगे और ( ऐ पैग़म्बर ! ) काफ़िरों को दु:ख देने वाले अज़ाब कि ख़बर सुना दो । ( 3 )
-कुरआन, पारा 10 , सूरा 9 , आयत- 1 ,2 ,3 ,

अली ने मुशरिकों से कह दिया कि " यह अल्लाह का फ़रमान है अब समझैता टूट चुका है और यह तुम्हारे द्वारा तोड़ा गया है इसलिये अब इज़्ज़त के चार महीने बीतने के बाद तुम से जंग ( यानि युद्ध ) है.

समझौता तोड़ कर हमला करने वालों पर जवाबी हमला कर उन्हें कुचल देना मुसलमानों का हक़ बनता था, वह भी मक्के के उन मुशरिकों के विरुद्ध जो मुसलमानों के लिए सदैव से अत्याचारी व आक्रमणकारी थे । इसलिये सर्वोच्च न्यायकर्ता अल्लाह ने पांचवीं आयत का फ़रमान भेजा ।
इस पांचवी आयत से पहले वाली चौथी आयत " अल-बत्ता, जिन मुशरिकों के साथ तुम ने अह्द किया हो, और उन्होंने तुम्हारा किसी तरह का क़ुसूर न किया हो और न तुम्हारे मुक़ाबले में किसी कि मदद की हो, तो जिस मुद्दत तक उसके साथ अह्द किया हो , उसे पूरा करो ( कि ) ख़ुदा परहेज़गारों को दोस्त रखता है ।"
-कुरआन, पारा 10 , सूरा 9 , आयत-4

से स्पष्ट है कि जंग का यह एलान उन मुशरिकों के विरुद्ध था जिन्होनें युद्ध के लिए उकसाया, मजबूर किया, उन मुशरिकों के विरुद्ध नहीं जिन्होनें ऐसा नहीं किया । युद्ध का यह एलान आत्मरक्षा व धर्मरक्षा के लिए था ।
अत: अन्यायियों , अत्याचारियों द्वारा ज़बदस्ती थोपे गये युद्ध से अपने बचाव के लिए किये जाने वाला नहीं कहा जा सकता ।

अत्याचारियों और अन्यायियों से अपनी व धर्म की रक्षा के लिए युद्ध करना और युद्ध के लिए सैनिकों को उत्साहित करना धर्म सम्मत है ।

इस पर्चे को छापने व बाँटने वाले लोग क्या यह नहीं जानते कि अत्याचारियों और अन्यायियों के विनाश के लिए ही योगेश्वर श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था । क्या यह उपदेश लड़ाई-झगड़ा करने वाला या घृणा फैलाने वाला है? यदि नहीं, तो फिर कुरआन के लिए ऐसा क्यों कहा जाता है?
फिर यह सूरा उस समय मक्का के अत्याचारी मुशरिकों के विरुद्ध उतारी गयी । जो अल्लाह के रसूल के ही भाई-बन्धु क़ुरैश थे । फिर इसे आज के सन्दर्भ में और हिन्दुओं के लिए क्यों लिया जा रहा है ? क्या हिन्दुओं व अन्य ग़ैरमुस्लिमों को उकसाने और उनके मन में मुसलमानों के लिए घृणा भरने तथा इस्लाम को बदनाम करने की घृणित साज़िश नहीं है?

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