मुहम्मद (सल्ल०) व आपके साथी मुसल्मोअनो के विरोध में कुरैश का साथ देने के
लिए अरब के और बहुत से कबीले थे जिन्होंने आपस में यह समझोता कर लिया था की कोई
कबीला किसी मुसलमान को पनाह नहीं देगा. प्रत्येक कबीले की ज़िम्मेदारी थी, जहाँ
कहीं मुसलमान मिल जाए उनको खूब मारें-पीतें और हर तरेह से अपमानित करें, जिससे वे
अपने बाप-दादा के धर्म की ओर लौट आने को मजबूर हो जाएँ.
दिन प्रतिदिन उनके अत्याचार बढ़ते गए. उन्होंने असहाय मुसलमानों को कैद किया,
मारा-पीता, भूखा प्यासा रखा. मक्के की तपती रेट पर नंगा लिटाया, लोहे की गर्म छड़ों
से दागा और तरेह-तरेह के अत्याचार लिए.
उदाहरण के लिए हज़रात यासिर(रजि०) और उनकी बीवी हज़रात सुम्य्या (रजि०) तथा उनके
पुत्र हज़रात अम्मार (रजि०) मक्के के गरीब लोग थे और इस्लाम कबूल कर मुसलमान बन गए
थे. उनके मुसलमान बन्ने से नाराज़ मक्के के काफिर उन्हें सज़ा देने के लिए जब कड़ी
दोपहर हो जाती, तो उनके कपडे उता उन्हें तपती रेट पे लिटा देते.
हज़रात यासिर(रजि०) ने इन ज़ुल्मो को सहेते हुए तड़प-तड़प कर जान देदी. मुहम्मद
(सल्ल०) व मुसलमानों का सबसे बड़ा विरोधी अबू जहल बड़ी बेदर्दी से हज़रात सुम्य्या
(रजि०) के पीछे पडा रहता था . एक दिन उन्होंने अबू-ज़हेल को बद्दुआ देदी जिससे
नाराज़ होकर अबू-जहेल ने भाला मार कर हज़रात सुम्य्या (रजि०) का क़त्ल करदिया. इस
तरेह इस्लाम में हज़रात सुम्य्या(रजि०) ही सबसे पहले सत्य की रक्षा के लिए शहीद
बनी.
दुष्ट कुरैश, हज़रात अम्मार (रजि०) को लोहे का कवच पहना लार धुप में लिटा देते.
तपती हुई रेट पर लिटाने के बाद मारते-मारते बेहोश कर देते.
उस समय जितने भी गुलाम मुस्लमान बन गए थे उन सभी पर इसी तरह के अत्यचार हो रहे थे. हज़रात मुहम्मद (सल्ल०) के जिगरी दोस्त हज़रात अबू-बक्र (रजि०) ने उन सब को खरीद-खरीद कर गुलामी से आज़ाद कर दिया.
काफ़िर कुरैश यदि किसी को कुरआन की आयते पढ़ते सुन लेते या नमाज़ पढ़ते देख लेते, तो पहले उनकी बहुत हसी उड़ाते फिर उसे बहुत सताते. इस डर के कारण मुसलमानों को नमाज़ पढनी होती तो छिपकर पढ़ते और कुरआन पढना होता तो धीमी आवाज़ में पढ़ते.
एक दिन कुरैश काबा में बैठे हुए थे. अब्दुल्लाह-बिन-मसूद (रजि०) काबा के पास नमाज़ पढने लगे, तो वहां बैठे सारे काफिर कुरैश उन पर टूट पड़े और उन्हें अब्दुल्लाह को मारते-मारते बे दम कर दिया.
जब मक्का में काफिरों के अत्याचार के कारण मुआल्मानो का जीना मुश्किल हो गया तो मुहम्मद (सल्ल०) ने उनसे कहा: "हबशा चले जाओ"
हबशा का बादशाह नज्ज़शी इसाई था. अल्लाह के रसूल का हुक्म पाते ही बहुत से मुसलमान हबशा चले गए. जब कुरैश को पता चाल तो उन्होंने अपने २ आदमियों को दूत बना कर हबशा के बादशाह के पास भेज कर कहलाया की "हमारे यहाँ के कुछ मुजरिमों ने भागकर आपके यहाँ शरण ली है. इन्होने हमारे धर्म से बगावत की है और आपका इसाई धर्म भी नहीं स्वीकार है, फिर भी अओके यहाँ रह रहे हैं. ये अपने बाप-दादा के धर्म से बगावत करके एक ऐसा धर्म लेकर चले हैं जिसे न हम जानते हैं और न आप. ये हमारे मुजरिम हैं, इनको लेने के लिए हम आये हैं."
बादशाह नज्ज़शी ने मुसलमानों से पूछा: 'तुम लोग कौनसा ऐसा नया धर्म लेकर चल रहे हो, जिसे हम नहीं जानते?"
इसपर मुसलमानों की और से हज़रात जाफर (रजि०) बोले- हे बादशाह! पहले हम लोग असभ्य और गवार थे, बुतों की पूजा करते थे, गंदे काम करते थे, पड़ोसियों से व आपस में झगडा करते रहते थे. इस बीच अल्लाह ने हमें अपना एक रसूल भेजा. उसने हमें सत्य-धर्म इस्लाम की और बुलाया. उसने हमें अलाह का ओईगाम देते हुए कहा: "हम केवल एक इश्वर की पूजा करे, बेजान बुतों की पूजा छोड़ दे, सत्य बोले और पड़ोसियों के साथ अच्छा व्यवहार करे, किसी के साथ अत्याचार और अन्याय न करें. व्यभिचार और गंदे कार्यों को छोड़ दें, अनाथों और कमजोरों का माल न खाएं, पाक दामन औरतों पर तोहमत न लगाएं, नमाज़ पढ़े और खैरात यानी की दान दे."
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