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भाग १.२


उलमा-ए-सीयर (यानी की पवित्र जीवनी लिखने वाले विद्वान्) लिखते हैं की- पगाम्बर मोहम्मद सल्लल्लाहु अलेही व सल्लम का जन्म मक्का के कुरैश कबीले के सरदार अब्दुल मुत्तलिब के बेटे अब्दुलाह के घर सन ५७० ई० में हुआ. मुहम्मद (सल्ल०) के जन्म से पहले ही उनके पिटा अब्दुल्लाह का निधन होगया था. ८ साल की उम्र में दादा अब्दुल मुत्तलिब का भी देहांत होगया तो चाचा अबू-तालिब के संरक्षण में आप (सल्ल०) पले-बढे.

२५ वर्ष की आयु में आप (सल्ल०) का विवाह खजीदा से हुआ. खजीदा मका के एक बहुत ही समृद्धशाली व सम्मानित परिवार की विधवा महिला थीं.

उस समय मक्का के लोग काबा की ३६० मूर्तियों की उपासना करते थे. मक्का में मूर्ती पूजा का प्रचालन शाम (सीरिया) से आया. वहाँ सबसे पहले जो मूर्ती स्थापित की गई वह 'हबल' नाम के देवता की थी, जो सीरिया से लाइ गयी थे. इसके बाद 'इसाफ' और 'नैला' की मूर्तियाँ ज़मज़म नाम के कुएं पर स्थापित की गयीं. फिर हर कबीले ने अपनी-अपनी अलग-अलग मूर्तियाँ स्थापित कीं. जैसे कुरिल कबीले ने 'उज्जा' की, तैफ के कबीले ने 'लात' की. मदीने के औस और ख्ज्राज़ कबीलों ने 'मनात' की. ऐसे ही वाद, सुवास, यागुस, सूफ, नासर आदि प्रमुख मूर्तियाँ थी. इसके अलावा हजरत इब्राहीम, हजरत इस्माइल, हजरत ईसा आदि की तस्वीरें व मूर्तियाँ खाना काबा में मोजूद थीं.

ऐसी परिस्थितियों में ४० वर्ष की आयु में आप (सल्ल०) को प्रथम बार रमजान के महीने में मक्का से ६ मील की दूरी पर 'गारे हीरा' नामक गुफा में एक फ़रिश्ता जिब्रील से अल्लाह का सन्देश प्राप्त हुआ. इसके बाद अल्लाह के रसूल हजरत मुहम्मद (सल्ल०) को समय समय पर अल्लाह के आदेश मिलते रहे. अल्लाह के यही आदेश, कुरआन हैं.

आप (सल्ल०) लोगों को अल्लाह के पैगाम देने लगे की 'अल्लाह एक है उसका कोई शरीक हैं. केवल वही पूजा के योग्य है. सब लोग उसी की इबादत करो. अल्लाह ने मुझे नबी बनाया है. मुझ पर अपनी आयतें उतारी हैं ताकि मई लोगों को सत्य बताऊ, सीढ़ी सत्य की राह दिखाऊ' जो लोग मुहम्मद (सल्ल०) के इस पैगाम पर ईमान (यानी विश्वास) लाये, वे मुस्लिम अर्थात मुसलमान कहलाये.

बीवी खदीजा(रजि०) आप पर विश्वास लाकर पहली मुसलमान बनी. उसके बाद चचा अबू-तालिब के बेटे अली (रजि०) और मुह बोले बेटे ज़ैद व आप (सल्ल०) के गहरे दोस्त (रजि०) ने मुसलमान बनने के लिए "अशहदु अल्ला इलाह इल्लाल्लाहू व अशहदु अन्न मुहम्मादुर्र्रासूलाल्लाह" यानी "मई गवाही देता हूँ, अल्लाह के रसूल हैं." कह कर इस्लाम कबूल किया.

मक्का के अन्य लोग भी ईमान ( विश्वास) लाकर मुसलमान बनने लगे. कुछ समय बाद ही कुरैश के सरदारों को मालूम हो गया की आप (सल्ल०) अपने बाप-दादा के धर्म बहुदेववाद और मूर्तिपूजा के स्थान पर किसी नए धर्म का प्रचार कर रहे हैं और बाप-दादा के दीं को समाप्त कर रहे हैं. यह जानकार आप (सल्ल०) के अपने ही कबीले कुरे=ऐश के लोग बहुत क्रोधित हो गए. मक्का के सारे बहुइश्वर्वादि काफिर सरदार इकट्ठे होकर मुहम्मद (सल्ल०) की शिकायत लेकर आप के चचा अबू तालिब के पास गए. अबू तालिब ने मुहम्मद (सल्ल०) को बुलवाया और कहा- "मुहम्मद ये अपने कुरैश कबीले के असरदार सरदार हैं, और ये चाहते हैं की तुम यह प्रचार न करो की अल्लाह के सिवा कोई पूज्य नहीं है और अपने बाप-दादा के धर्म पर कायम रहो."

मुहम्मद (सल्ल०) ने 'ला इल-ह इल्लल्लाह' (अल्लाह के अलावा कोई पूज्य नहीं है) इस सत्य का प्रचार छोड़ने से इनकार कर दिया. कुरैश सरदार क्रोधित होकर चले गए.

इसके बाद कुरैश सरदारों ने ये तय किया की अब हम मुहम्मद को हर प्रकार से कुचल देंगे. वे मुहम्मद (सल्ल०) और साथियों को बेरहमी से तरह-तरह से सताते, अपमानित करते और उन पर पत्थर बरसाते.

इसके बाद भी आप (सल्ल०) ने उनकी दुष्टता का जवाब सदैव सज्जनता और सद्व्यवहार से ही दिया.

'सल्ल०' का पूर्णरूप है- 'सल्लल्लाहु अलेही व सल्लम'. जिसका अर्थ है- 'अल्लाह उन पर रहमत और सलामती की बारिश करे'.
हजरत मुहम्मद (सल्ल०) का नाम लेते या पढ़ते समय आदर देने के लिए इसका प्रयोग किया जाता है.


'रजि०' का पूर्ण रूप है- 'राज़ियाल्लाहू अन्हु', जिसका अर्थ है- ' अल्लाह उन से राज़ी हो' इस आदर सूचक शब्द का प्रयोग सहाबी* के नाम के साथ होता है.
* सहाबी उस मुसलमान को कहते हैं जिसे पैगम्बर हजरत मुहम्मद (सल्ल०) से मिलने का औभाग्य प्राप्त हुआ हो.
सहाबी का बहुवचन सहाबा होता है और स्त्रीलिंग सहाबिय:. सहबिय: के नाम के साथ रजि० को राजियाल्लाहू अन्हां पढ़ा जता है.

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