पैम्फलेट में लिखी 19वें क्रम की आयत है:
१९ - " हे नबी ! ' ईमान ' वालों ( मुसलमानों ) को लड़ाई पर उभारो. यदि तुम 20 जमे रहने वाले होंगे तो वे 200 पर प्रभुत्व प्राप्त करेंगे , और यदि तुम में 100 हों तो 1000 ' काफ़िरों ' पर भारी रहेंगे , क्योंकि वे ऐसे लोग हैं जो समझ बूझ नहीं रखते.
-सूरा ८, आयत ६५
मक्का के अत्याचारी क़ुरैश व अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) के बीच होने वाले युद्ध में क़ुरैश की संख्या अधिक होती और सत्य के रक्षक मुसलमानों की कम. ऐसी हालात में मुसलमानों का हौसला बढ़ाने व उन्हें युद्ध में जमाये रखने के लिए अल्लाह की ओर से यह आयत उतरी. यह युद्ध अत्याचारी व आक्रमणकारी काफ़िरों से था न कि सभी काफ़िरों या ग़ैर-मुसलमानों से. अत: यह आयात अन्य धर्मावलम्बियों से झगड़ा करने का आदेश नहीं देती. इसके प्रमाण में एक आयत दे रहे हैं. :
जिन लोगों ( यानि काफ़िरों ) ने तुमसे दीन के बारे में जंग नहीं की और तुम को तुम्हारे घरों से निकाला, उनके साथ भलाई और इंसाफ़ का सुलूक करने से ख़ुदा तुमको मना नहीं करता । ख़ुदा इंसाफ करने वालों को दोस्त रखता है ।
-कुरआन, पारा २८, सूरा ६०, आयत - ८
पैम्फलेट में लिखी २०वें क्रम की आयत है :
जिन लोगों ( यानि काफ़िरों ) ने तुमसे दीन के बारे में जंग नहीं की और तुम को तुम्हारे घरों से निकाला, उनके साथ भलाई और इंसाफ़ का सुलूक करने से ख़ुदा तुमको मना नहीं करता । ख़ुदा इंसाफ करने वालों को दोस्त रखता है ।
-कुरआन, पारा २८, सूरा ६०, आयत - ८
२०- " हे ईमान वालों ( मुसलमानों ) तुम 'यहूदियों' और ' ईसाईयों' को मित्रं न बनाओ । ये आपस में एक दुसरे के मित्र हैं । और जो कोई तुम में से उनको मित्र बनायेगा , वह उन्हीं में से होगा । नि:संदेह अल्लाह ज़ुल्म करने वालों को मार्ग नहीं दिखता ।" -सूरा ५, आयत- ५१
यहूदी और ईसाई ऊपरी तौर पर मुसलमानों से दोस्ती की बात करते थे लेकिन पीठ पीछे क़ुरैश को मदद करते और कहते मुहम्मद से लड़ो हम तुम्हारे साथ हैं । उनकी इस चाल को नाकाम करने के लिए ही यह आयत उतरी जिसका उद्देश्य मुसलमानों को सावधान करना था, न कि झगड़ा करना । इसके प्रमाण में कुरआन की एक आयत दे रहे हैं-
ख़ुदा उन्हीं लोगों के साथ तुम को दोस्ती करने से मना करता है , जिन्होनें तुम से दीन के बारे में लड़ाई की और तुम को तुम्हारे घरों से निकाला और तुम्हारे निकालने में औरों कि मदद की, तो जो लोग ऐसों से दोस्ती करेंगे, वही ज़ालिम हैं । "
- कुरआन, पारा २८, सूरा ६०, आयत- ९
पैम्फलेट में लिखी २१वें क्रम की आयत है :
२१ - " किताब वाले ' जो न अल्लाह पर 'ईमान' लाते हैं न अंतिम दिन पर, न उसे 'हराम' करते हैं जिसे अल्लाह और उसके ' रसूल ' ने हराम ठहराया है, और न सच्चे 'दीन' को अपना 'दीन' बनाते हैं, उनसे लड़ो यहाँ तक की वे अप्रतिष्ठित ( अपमानित ) होकर अपने हाथों से ' जीज़या' देने लगें. "
और अगर तुम्हारा परवरदिगार ( यानि अल्लाह ) चाहता, तो जितने लोग ज़मीन पर हैं, सब के सब ईमान ले आते, तो क्या तुम लोगों पर ज़बरदस्ती करना चाहते हो कि वे मोमिन ( यानि मुस्लमान ) हो जाएँ.
यहूदी और ईसाई ऊपरी तौर पर मुसलमानों से दोस्ती की बात करते थे लेकिन पीठ पीछे क़ुरैश को मदद करते और कहते मुहम्मद से लड़ो हम तुम्हारे साथ हैं । उनकी इस चाल को नाकाम करने के लिए ही यह आयत उतरी जिसका उद्देश्य मुसलमानों को सावधान करना था, न कि झगड़ा करना । इसके प्रमाण में कुरआन की एक आयत दे रहे हैं-
ख़ुदा उन्हीं लोगों के साथ तुम को दोस्ती करने से मना करता है , जिन्होनें तुम से दीन के बारे में लड़ाई की और तुम को तुम्हारे घरों से निकाला और तुम्हारे निकालने में औरों कि मदद की, तो जो लोग ऐसों से दोस्ती करेंगे, वही ज़ालिम हैं । "
- कुरआन, पारा २८, सूरा ६०, आयत- ९
२१ - " किताब वाले ' जो न अल्लाह पर 'ईमान' लाते हैं न अंतिम दिन पर, न उसे 'हराम' करते हैं जिसे अल्लाह और उसके ' रसूल ' ने हराम ठहराया है, और न सच्चे 'दीन' को अपना 'दीन' बनाते हैं, उनसे लड़ो यहाँ तक की वे अप्रतिष्ठित ( अपमानित ) होकर अपने हाथों से ' जीज़या' देने लगें. "
इस्लाम के अनुसा तौरात, ज़ूबूर ( Old Testament ) व इंजील ( New Testament ) और कुरआन मजीद अल्लाह की भेजी हुई किताबें हैं, इसलिए इन किताबों पर अलग-अलग ईमान वाले क्रमश: यहूदी, ईसाई और मुस्लमान ' किताब वाले ' या 'अहले किताब' कहलाए. यहाँ इस आयत में किताब वाले से मतलब यहूदियों और ईसाईयों से है.
ईश्वरीय पुस्तकें रहस्यमयी होती हैं इसलिए इस आयत को पढ़ने के बाद ऐसा लगता है की इनमें यहूदियों और ईसाईयों को ज़बरदस्ती मुस्लमान बनाने के लिए लड़ाई है. लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है क्योंकि इस्लाम में किसी भी प्रकार की ज़बरदस्ती की इजाज़त नहीं है.
कुरआन में अल्लाह मना करता है की किसी को ज़बरदस्ती मुसलमान बनाया जाये. देखिये :
ऐ पैग़म्बर ! अगर ये लोग तुम से झगड़ने लगें, तो कहना की मैं और मेरी पैरवी करने वाले तो ख़ुदा के फ़रमाँबरदार हो चुके और ' अहलेकिताब ' और अनपढ़ लोगों से कहो की क्या तुम भी ( खुदा के फ़रमाँबरदार बनते हो और ) इस्लाम लाते हो ? अगर यह लोग इस्लाम ले आयें तो बेशक हिदायत पा लें और अगर ( तुम्हारा कहा ) न मानें, तो तुम्हारा काम सिर्फ खुदा का पैगाम पहुंचा देना है.
ईश्वरीय पुस्तकें रहस्यमयी होती हैं इसलिए इस आयत को पढ़ने के बाद ऐसा लगता है की इनमें यहूदियों और ईसाईयों को ज़बरदस्ती मुस्लमान बनाने के लिए लड़ाई है. लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है क्योंकि इस्लाम में किसी भी प्रकार की ज़बरदस्ती की इजाज़त नहीं है.
कुरआन में अल्लाह मना करता है की किसी को ज़बरदस्ती मुसलमान बनाया जाये. देखिये :
ऐ पैग़म्बर ! अगर ये लोग तुम से झगड़ने लगें, तो कहना की मैं और मेरी पैरवी करने वाले तो ख़ुदा के फ़रमाँबरदार हो चुके और ' अहलेकिताब ' और अनपढ़ लोगों से कहो की क्या तुम भी ( खुदा के फ़रमाँबरदार बनते हो और ) इस्लाम लाते हो ? अगर यह लोग इस्लाम ले आयें तो बेशक हिदायत पा लें और अगर ( तुम्हारा कहा ) न मानें, तो तुम्हारा काम सिर्फ खुदा का पैगाम पहुंचा देना है.
-कुरआन, पारा ३, सूरा ३, आयत- २०
-कुरआन, पारा ११, सूरा १०, आयत- ९९
इस्लाम के प्रचार-प्रसार में किसी तरह कि ज़ोर-ज़बरदस्ती न करने की इन आयतों के बावजूद इस आयत में ' किताबवालों' से लड़ने का फरमान आने के कारण वही है , जो पैम्फलेट में लिखी 8वें, 9वें व 20वें क्रम कि आयतों के लिए मैंने दिए हैं . आयत में जीज़या नाम का टैक्स ग़ैर-मुसलमानों से उन की जान-माल की रक्षा के बदले लिया जाता था. इस के अलावा उन्हें कोई टैक्स नहीं देना पड़ता था. जबकि मुसलमानों के लिए भी ज़कात देना ज़रूरी था. आज तो सर्कार ने बात-बात पर टैक्स लगा रखा है. अपना ही पैसा बैंक से निकलने तक में सर्कार ने टैक्स लगा रखा है.
पैम्फलेट में लिखी २२वें क्रम की आयत :
२२- " ---------- फिर हमनें उनके बीच ' कियामत ' के दिन तक के लिए वैमनस्य और द्वेष की आग भड़का दी, और अल्लाह जल्द उन्हें बता देगा जो कुछ वे करते हैं ।"
-सूरा ५, आयत- १४
-सूरा ५, आयत- १४
कपटपूर्ण उद्देश्य के लिये पैम्फलेट में यह आयत भी जान-बूझ कर अधूरी दी गयी है. पूरी आयत है :
और जो लोग ( अपने को ) कहते हैं की हम नसारा ( यानि इसाई ) हैं, हम ने उन से भी अहद ( यानि वचन ) लिया था. मगर उन्होंने भी उस नसीहत का, जो उन को की गयी थी, एक हिस्सा भुला दिया, फिर हमनें उनके बीच ' कियामत' के दिन तक के लिये वैमनस्य और द्वेष की आग भड़का दी, और अल्लाह जल्द उन्हें बता देगा जो कुछ वे करते रहे हैं.
-कुरआन , पारा ६, सूरा ५, आयत- १४
-कुरआन , पारा ६, सूरा ५, आयत- १४
पूरी आयत पढने से स्पष्ट है कि वडा खिलाफ़ी, चालाकी और फरेब के विरुद्ध यह आयत उतरी, न कि झगडा करने के लिये.
पैम्फलेट में लिखी २३वें क्रम की आयत है :
२३ - " वे चाहते हैं कि जिस तरह से वे ' काफ़िर ' हुए हैं उसी तरह से तुम भी ' काफ़िर' हो जाओ तो उनमें से किसी को अपना साथी न बनाना जब तक वे अल्लाह कि राह में हिजरत न करें, और यदि वे फिर जावें तो उन्हें जहाँ कहीं पाओ पकड़ो और उनका ( क़त्ल ) वध करो । और उनमें से किसी को साथी और सहायक मत बनाना."
-सूरा ४, आयत- ८९
इस आयत को इससे पहले वाली 88वीं आयत के साथ मिला कर पढ़ें, जो निम्न है :-
तो क्या वजह है की तुम मुनाफिकों के बारे में दो गिरोह ( यानि दो भाग ) हो रहे हो ? हां यह है की खुदा ने उनके करतूतों की वजह से औंधा कर दिया है , क्या तुम चाहते हो की जिस शख्स को खुदा ने गुमराह कर दिया उसको रस्ते पर ले आओ ?
-सूरा ४, आयत- ८८
स्पष्ट है की इससे आगे वाली 89वीं आयत, जो पर्चे में दी है, उन मुनाफ़िकों ( यानि कपटाचारियों ) के सन्दर्भ में हैं, जो मुसलमानों के पास आकार कहते है की हम 'ईमान' ले आये और मुस्लमान बन गये और मक्का में काफ़िरों के पास जा कर कहते कि हम अपने बाप-दादा के धर्म में ही हैं, बुतों को पूजने वाले .
हम तो मुसलमानों के बीच भेद लेने जाते हैं, जिसे हम आप को बताते हैं. यह मुसलमानों के बीच बैठ कर उन्हें अपने बाप-दादा के धर्म ' बुत पूजा' पर वापस लौटने को भी कहते.
इसलिए यह आयत उतरी कि इन कपटाचारियों को दोस्त न बनाना क्योंकि यह दोस्त हैं ही नहीं, तथा इनकी सच्चाई की परीक्षा लेने के लिये इनसे कहो कि तुम भी मेरी तरह वतन छोड़ कर हिजरत करो अगर सच्चे हो तो. यदि न करें तो समझो कि यह नुक़सान पहुँचाने वाले कपटाचारी जासूस है, जो काफ़िरों से अधिक खतनाक हैं. उस समय युद्ध का माहौल था, युद्ध के दिनों में सुरक्षा कि दृष्टी से ऐसे जासूस बहुत ही खतनाक हो सकते थे, जिनकी एक ही सजा हो सकती थी: मौत. उनकी संदिग्ध गतिविधियों के कारण ही मना किया गया है कि उन्हें न तो अपना साथी बनाओ और न ही मददगार , क्योंकि ऐसा करने पर धोखा ही धोखा है.
यह आयत मुसलमानों कि आत्मरक्षा के लिये उतरी न कि झगडा कराने या घृणा फैलाने के लिये.